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________________ एवं अन्य गुणों से युक्त वैभव के साथ आदर्श जीवन व्यतीत करते रहें हैं। पद्मावती पुरवाल क्षेत्र के निकटवर्ती स्थानों में बुढेलवाल, लबेंचू, खरौआ, अग्रवाल, पल्लीवाल, जैसवाल आदि जातियों से मधुर संबंध रखते हुए पद्मावती पुरवाल समाज सम्पूर्ण क्षेत्र को सुशोभित करने में महत्वपूर्ण योगदान कर रही हैं। पूर्व में तो इस जाति के लोग अपनी जाति में ही वैवाहिक संबंध स्थपित करते थे, किन्तु अब अन्य जातियों से भी वैवाहिक संबंध होने लगे हैं। पद्मावती पुरवालों में गोत्र व्यवस्था प्रायः भंग हो गयी है। आवश्यकता है कि भूले-बिसरे गोत्रों को स्मरण कर किसी भी प्रकार से पुनर्जीवित एवं स्थापित किया जाए। लोकोत्तर साधना में अग्रसर एवं स्वपर कल्याण के उत्कृष्ट मानदंड आदर्श महापुरुषों में पद्मावती.पुरवाल जाति के अंतर्गत प.पू. 108 आ. श्री महावीरकीर्ति, आ. श्री सुधर्मसागर जी, आ. श्री विमलसागर जी, आ. श्री निर्मलसागर जी, आ. श्री सन्मतिसागर जी, फफोतू वाले, मुनि श्री अमितसागर जी के तीनों शिष्य मुनि श्री आदित्यसागर जी, मुनि श्री आस्तिक्यसागर जी, मुनि श्री अनुकम्पासागर जी महाराज आदि के नाम समाज द्वारा श्रद्धा के साथ लिये जाते हैं। यह समाज मनीषी विद्वानों की ही पर्याय के रूप में प्रसिद्ध है। पूर्व में पं. गजाधर लाल जी, पं. रामप्रसाद जी शास्त्री, पं. मनोहर लाल जी, पं. खबचन्द्र जी, पं. नरसिंगदास जी. पं. श्री लाल जी, विद्वत सम्राट पं. माणिक चन्द्र जी 'कौन्देय', वाद-शास्त्रार्थ विद्या के उच्च शिखर पं. मक्खन लाल जी, पं. हेमचन्द्र जी, पं. रामचन्द्र जी, पं. कुंजीलाल जी, जैन गजट के पूर्व यशस्वी सम्पादक पं. श्याम सुन्दर लाल जी आदि सैकड़ों की संख्या में उद्भट विद्वानों ने इस जाति के गौरव को वृद्धिंगत किया हैं पं. लालाराम जी शास्त्री जो कि पं. मक्खन लाल जी के भाई थे, ने 60 से अधिक ग्रन्थों की अपूर्व टीकायें लिख कर दिगम्बर जैन समाज पर महान उपकार किया है। ये दीर्घकाल तक मैनपुरी में निवास कर सरस्वती साधना में लीन रहे। आज भी मुझे उनका भावभीना स्मरण है। वे निरन्तर 8-8, 10-10 घण्टे बैठकर लेखन कार्य किया करते थे। अर्थाभाव को गले लगाकर स्वाभिमानी एवं सादगीपूर्ण जीवन के साथ हमारे परिवार के अग्रज डा. सतीश चन्द्र जी के घर से पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 390
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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