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________________ 9. आचार-सिद्धान्त के क्षेत्र में मौलिकता का निदर्शन, 10. प्रायः प्रत्येक रचना की आदि एवं अन्त की प्रशस्तियों के माध्यम से सकालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों पर प्रकाश तथा स्वात्म-परिचय, पूर्ववर्ती एवं समकालीन साहित्य एवं साहित्यकारों, शासकों, नगर सेठों, भट्टारकों तथा अपने साहित्य-रसिक आश्रय-दाताओं का विस्तृत परिचय। महाकवि रइधू के साहित्यरसिक आश्रयदाताओं ने उन्हें पद्मावति-पुरवाल कुल रूपी कमल के लिये दिवाकर, पद्मावति-पुरवाल समाज में अग्रणी, पद्मावति-पुरवाल जाति के सुवंश रूप आकाश के लिये पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान, पद्मावति-पुरवाल-समाज के गौरव-पुत्र जैसे विशेषणों से अभिहित किया है। उनकी जन्म-स्थली की जानकारी नहीं मिलती किन्तु यह अधिक सम्भावना है कि वे पद्मावति-नगरी (वर्तमान पवायां) के ही निवासी रहे हो? उनका कार्य-क्षेत्र तो हिसार (हिसार) मालवा तक था किन्तु प्रतीत होता है कि उनके जीवन का बहुभाग गोपाचल (ग्वालियर) में व्यतीत हुआ था। वां के तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह, जो कि अपने शौर्य-वीर्य एवं रणकौशल से अपने राज्य को सुरक्षित रखने वाले थे, उनकी कवित्वशक्ति से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने उन्हें गोपाचल-दुर्ग में रहकर ही साहित्य-साधना करने का अनुरोध किया था। अतः उन्होंने वहीं पर रहकर अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। रइधू के गुरु भट्टारक गुणकीर्ति एवं उनके शिष्य यशःकीर्ति थे। उन्होंने ही इनकी साहित्यिक-प्रतिभा को उत्तेजित किया था। रइधू ने अपनी ग्रन्थ-प्रशस्तियों में इनका सादर गुणानुवाद किया है। इनके अतिरिक्त भी रइधू ने अन्य समकालीन 10 भट्टारकों के कृतित्व एवं व्यक्तित्व का सादर उल्लेख किया है। ये सभी काष्ठा-संघ, माथुर-गच्छ, पुष्कर-गण शाखा के भट्टारक थे। फ्याक्तीपुरवात दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 336
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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