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________________ जैनागमों के अनुसार भगवान् पार्श्व ने अपनी मुनि दीक्षा के पूर्व जलते हुए नाग-नागिनी को अत्यन्त करुणापूर्वक णमोकार-मंत्र का दान किया था, जिसके प्रभाव से वे दोनों मरकर स्वर्ग में धरणेन्द्र देव एवं पद्मावती देवी के रूप में उत्पन्न हुए थे। और यह भी सुप्रसिद्ध है कि मुनि-दीक्षा के बाद पार्श्व जब गहन-वन में घोर तपस्या में संलग्न थे। तथा उनके पूर्वजन्म के बैरी कमठ ने उन पर अग्नि-वर्षा, पत्थर-वर्षा एवं विकट जल-वर्षा कर अनेक प्रकार के भीषण उपसर्ग किये थे। विषम परिस्थितियों में पूर्वजन्म के उन्हीं चिरकृतज्ञ धरणेन्द्र-देव एवं देवी-पद्यावती ने उन्हें सुरक्षा प्रदान की थी। उपसर्ग-काल की भयानक वर्षा के समय देवी पद्मावती ने तो अथाह जल के ऊपर सहन-दल कमल की रचना कर तपस्यारत पार्श्व को उस पर विराजमान कर दिया था तथा धरणेन्द्र-देव ने उनके ऊपर आतपत्र के समान अपने सहस्रफण फैला दिये थे। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं राजस्थानी का विपुल साहित्य इस कथानक से भरा पड़ा है। नामकरण कहते हैं कि जिस स्थल पर उक्त घटना घटित हुई थी, वहां के लोगों ने पार्श्व-भक्त उसी देवी-पद्मावती को अपनी माता मानकर उसी की पावन-स्मृति को सुरक्षित करने के लिये, उसे अपनी कुलदेवी भी मान लिया था तथा उस घटना स्थल का नामकरण भी पद्मावतीपुर के रूप में कर दिया था और अपने को गौरवान्वित समझकर उन्होंने अपने को पद्मावती-पुरवाला कहना प्रारम्भ कर दिया था, जो आगे चलकर पद्मावती-पुरवाल के रूप में प्रसिद्ध हो गये। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पद्मावती-पुरवाल समाज का उद्भव भगवान महावीर के परिनिर्वाण-काल (ई. पू. 527+250 वर्ष = 777 वष) ईसा-पूर्व 777 वर्ष के आसपास हुआ था। समाज-शास्त्र के नियमानुसार जाति तथा गोत्रों का विकास ग्रामों, पावतीपुरबाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 390
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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