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________________ महाराज का सानिध्य एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ। आप यू. आचार्य श्री के प्रथम एवं प्रिय शिष्य थे। गुरुवर का आपके ऊपर वरदहस्त था। आप आर्ष परम्परा के कट्टर समर्थक थे। सफेद धोती-दुपट्टा, मस्तक पर केसर का तिलक के कारण आप समाज में 'बाबाजी' के नाम से विख्यात हुए। आप सरल स्वभावी और सादा, जीवन के धनी थे। आपने 14 वर्ष की अल्पायु में ही पूज्य आचार्य श्री 108 वीरसागरजी महाराज से अखंड ब्रह्मचर्य व्रत एवं सप्तम प्रतिमा ग्रहण की। . .. आपकी बहिन बाल ब्रह्मचारिणी कस्तूर बाई के आग्रह पर आपने टोंक जिला के निवाई शहर को कर्म क्षेत्र बनाया। अपने निवास स्थान पर एक भव्य चैत्यालय का निर्माण कराया। आप ज्योतिष, न्याय, व्याकरण, तंत्र, मंत्रादि के ज्ञाता थे। आपका हिन्दी मराठी, संस्कृत प्राकृत जैसी भाषाओं पर सम्पूर्ण अधिकार था। पूज्य बाबाजी पूर्वाचार्यों द्वारा प्रमाणित आगम प्रमाण विधि का पूरा पालन करते थे। यही कारण था कि आपकी पंचकल्याणक विधि को बहुमान मिलता था।' पू. बाबाजी ने अपने जीवन काल में 159 पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं करायीं, वेदी प्रतिष्ठा एवं विधान तो अनगिनत हैं। आपको भारत वर्ष के वरिष्ठतम प्रतिष्ठाचार्य होने का गौरव भी प्राप्त था। विधि-विधान आगम प्रमाणित विधि से करवाने के कारण आपको समाज ने अनेक पदवियों से विभूषित किया। सर्वप्रथम मरसलगंज पंच कल्याणक प्रतिष्ठा में आपको "संहितासूरी' एवं उसके बाद प्रतिष्ठाचार्य, प्रतिष्ठा दिवाकर, प्रतिष्ठा तिलक, गुरु भक्त वाणी भूषण; श्रावक शिरोमणि, विद्या वाचस्पति जैसी पदवियों से सम्मानित किया। आपने परम पूज्य 108 आचार्य श्री शिवसागर जी, परम पूज्य आचार्य श्री धर्मसागरजी, परम पूज्य आचार्य श्री अजित सागर जी, परम पूज्य पचायतीपुरवास दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 320
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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