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________________ कार्य भी किया तथा ज्ञान की सापेक्षिकता पर शोध लेख लिखा। जैन धर्म दर्शन और तत्व-ज्ञान में उन्हें अटूट आस्था थी तथा उनके शोध कार्य में इसकी झलक भी मिलती है। सापेक्ष ज्ञान की गंभीरता को कुछ ही लोगों ने समझा। इस जगत में वस्तु व जीव अनन्त हैं। प्रत्येक वस्तु व जीव में अनन्त गुण हैं। पूर्णज्ञान होने के लिए केवल ज्ञान के प्रकट होने की आवश्यकता होती है। जो अरिहंत सिद्ध और मुक्त जीवों को ही प्राप्त होती है। शेष सब का ज्ञान सीमित तथा सापेक्ष होता है। अंतिम ज्ञान प्राप्त होने से पूर्व मनुष्य को अपने अधूरे ज्ञान पर अवलम्बित रहना पड़ता है। वैदिक तथा बौद्धिक विचार धाराओं में विरोधाभास होते हुए जैन आगमों की विचारधारा में समन्वयता दृष्टिगत होती है। सापेक्ष ज्ञान के बारे में सभी मतावलम्बी तथा विचारक अपनी व्याख्यायें देते रहे हैं लेकिन भगवान महावीर तथा उन से भी पहले हुए तीर्थंकरों की वाणी में इस का विषद विवेचन मिलता है। सापेक्ष ज्ञान को समझने के लिए उन्होंने अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगी, परमाणुवाद तथा जयवाद को आधार बना कर उन की व्यापकता प्रस्तुत करते हुए विषय की गहनता को समझाया। उनकी जीवन शैली बहुत ही सरल होते हुए उन्होंने दार्शनिक साहित्य जगत में ख्याति प्राप्त की। अपने जीवन काल में भारतीय तत्व ज्ञान की मूल-भूत समस्याएं तथा जैन दार्शनिकों के इस बारे में समाधान व उनक चिन्तन के बारे में कई लेख लिखे, जिन्हें विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ। यही नहीं तर्क शास्त्र विषय पर उस की विषय-सूची के अनुसार पुस्तकें हुईं जिन्हें विद्यार्थियों ने कालेज में वर्षों तक पढ़ा। तिरक्कुरल (तमिल वेद) ग्रन्थ जो कि दक्षिण में सामाजिक ज्ञान की सूक्तियां हैं, उन का हिन्दी में अनुवाद कर के प्रकाशित हुआ। इन सब पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 302
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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