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________________ अनेक जातियों में भाटों द्वारा जाति के सब घरानों का वृतान्त संग्रहीत करने की प्रथा थी। ऐसे वृतान्तों में अक्सर किसी प्राचीन आचार्य के द्वारा उस जाति की स्थापना होने की कहानी मिलती है। नन्दीतट गच्छ के प्रकरण से ज्ञात होगा कि नरसिंहपुरा जाति का स्थापना का श्रेय रामसेन को दिया जाता है तथा भट्टपुरा जाति उनके शिष्य नैमिसेन द्वारा स्थापित मानी जाती है। ऐतिहासिक काल में भी सूरत के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति (प्रथम) को रत्नाकर जाति का संस्थापक कहा गया है। कई स्थानों पर जैनेत्तर समाजों में धर्मोपदेश देकर कई जातियों की स्थापना हुई। प्रत्येक जाति में नियत संख्या में कुछ गोत्र थे। मूर्तिलेख में इसका उल्लेख हुआ है। बघेरवाल जाति के पच्चीस गोत्र काष्ठा संघ के और सत्ताइस गोत्र मूलसंघ के अनुयायी थे। खंडेलवाल, अग्रवाल, लमेंचू, परवार, वरैया, जैसवाल, गोलालारे, खरौआ, हुमड़ आदि जातियों में भी गोत्रों के उल्लेख मिलते हैं। श्रीमाल, ओसवाल आदि कुछ जातियां श्वेताम्बर समाज में ही हैं। किन्तु इनके भी कुछ उल्लेख दिगम्बर भट्टारकों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों के लेखों में मिलते हैं। गोत्रों के भेद विवाह के समय कितने गोत्रों का विचार किया जाय इस पर आधारित थे। भगवान महावीर के निर्वाण के 470 वर्ष 5 माह व्यतीत होने पर विक्रमादित्य भारतवर्ष में उज्जैनी का राजा हुआ। अपने राज्यारोहण पर इसने जो संवत् चलाया वह विक्रम संवत व्यवहार में बराबर प्रचलित है। उस समय मानव समाज अनेक उपवंशों में बंटने लगा था। और कई उपवंशों को लेकर जातियां प्रगट होने लगी थीं। यहां तक कि भगवान महावीर के झंडे में रहने वाले जैन धर्मावलम्बी भी 84 जातियों में कोई क्षेत्रों को लेकर, तो कोई चमत्कारों से प्रभावित होकर, तो कोई यक्षादिक हिंसा से त्रस्त होकर, कहीं प्रथाओं और रीति-रिवाजों को लेकर बंट चुके थे। जैनियों की 84 जातियों के संबंध में ऐसा माना जाता है कि पद्मावती पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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