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________________ पन्द्रहवीं शताब्दी में बाबा ऋषभदास नामक एक क्षुल्लक पधारे। ये दक्षिण के रहने वाले ब्राह्मण थे, किन्तु जैन धर्म के कट्टर अनुयायी थे। ये मंत्र-तंत्र के भी अच्छे जानकार थे। उनकी प्रेरणा और प्रयत्न से उस छोटे से मंदिर के स्थान पर वर्तमान विशाल मंदिर का निर्माण किया गया और बड़े समारोह पूर्वक उसकी प्रतिष्ठा भी उन्हीं बाबूजी द्वारा की गई। उन्होंने स्वयं कहीं से भगवान ऋषभदेव की एक मनोज्ञ और सातिशय प्रतिमा लाकर मुख्यवेदी में विराजमान कराई । उस प्रतिमा के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग आने लगे। धीरे-धीरे उस प्रतिमा के चमत्कारों और अतिशयों की चारों ओर चर्चा फैलने लगी । इस प्रकार मरसलगंज एक अतिशयक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हो गया । क्षेत्र पर केवल एक ही मंदिर है। मुख्य वेदी में भगवान ऋषभदेव की श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है। इसकी प्रतिष्ठा वि. सं. 1545 में हुई । मूलनायक प्रतिमा के अतिरिक्त पांच पाषाण प्रतिमाएं और ग्यारह धातु प्रतिमाएं हैं। धातु प्रतिमाओं में एक चौबीसी भी है। दो वेदियां और हैं बायीं वेदी में मूलनायक शांतिनाथ भगवान के अतिरिक्त आठ पाषाण प्रतिमाएं तथा वेदी के दोनों ओर पांच फुट अवगाहना वाली दो खड़गासन प्रतिमाएं हैं। दायीं ओर वेदी में भगवान नेमिनाथ की कृष्णवर्ण मूलनायक प्रतिमा हैं तथा इसके अतिरिक्त सात प्रतिमाएं और हैं । इन अरहन्त प्रतिमाओं के अलावा आचार्य सुधर्मसागर जी आचार्य महावीर कीर्ति जी और आचार्य विमलसागर जी की भी पाषाण प्रतिमाएं ध्यान मुद्रा में विराजमान हैं । इस मंदिर से सटा हुआ एक हाल है जिसमें खुली वेदी में भगवान ऋषभदेव की श्वेत पाषाण की सात फुट अवगाहनावाली भव्य पद्मासन प्रतिमा है। इसका भार 350 मन है । पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 181
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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