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________________ मन्त्र और मातृकाएं / 45 हमारी प्राण वायु और ऊर्जा दोनों मिलकर कण्ठ के साथ जुडती है और कुछ ध्वनियां निर्मित होती हैं । मूर्धा और ओष्ठ के संयोग से कुछ ध्वनियां बनती हैं। इन्ही ध्वनियों को मातृका कहते हैं । मातृका का अर्थ है मूल और सारे ज्ञान-विज्ञान का मूल है शब्द, और शब्द का मूल कण्ठ से ओष्ठ तक है । हमारी प्राण ऊर्जा टकरा करके, आहत या प्रताडित होकर अनेक शब्दाकृतियों को पैदा करती है, स्फोट पैदा करती है उसको व्यवहार मे शब्द कहते हैं । ध्वनि शब्द के रूप मे परिवर्तित होती है । यह अपनी उच्चतम अवस्था मे दिव्यध्वनि या निरक्षरीध्वनि भी बनती है। वास्तव में यह बनती नही है खिरती हैअपनी पूरी गरिमामय सहजता से । यही सम्पूर्ण विश्व के सृष्टिक्रम का सचालन करती है । इसी को हम मात्रिका या मूल शक्ति कहते हैं । सारा ज्ञान-विज्ञान इसी से है। आप किसी नये शहर मे पहुचते ही उसकी जानकारी के लिए तुरन्त उस शहर की पुस्तक खरीद लेते है और अपना पूरा काम चला लेते है । यह क्या है ? यही तो है मातृकाशक्ति का प्रकट फल । हमारी देव नागरी लिपि की वर्णमाला अ से ह तक है । क्ष, त्र, ज्ञ तो सयुक्त अक्षर हैं, स्वतन्त्र नही है । अत. अ से ह तक की वर्णमाला मे है । हमारी यात्रा अ से आरम्भ होकर ह पर समाप्त होती है । असे ह तक ही हमारा समस्त ज्ञान-विज्ञान है। हम उसी मे स्वप्न देखते है, सोचते है और जीवन क्रिया मे लीन होते हैं । हमारे समस्त आचार-विचार का मूलाधार यही है । यह जो ससार है वैखरी का ससार है । - बाह्य शब्द का ससार है। इसी के सहारे हम समस्त विश्व को जानते है । मन्त्र मे केवल इतना ही नही है कि शब्द का बाह्य अर्थात् स्थूल ज्ञान मात्र हो । हमने मातृका की बात की है । उसको समझना होगा, उसके व्यापक प्रभाव को हृदयगम करना होगा । मातृका - शक्ति के पूर्ण प्रभाव को हर व्यक्ति नही समझ सकता। इस सन्दर्भ मे स्पष्टता के लिए महाभारत का एक प्रसंग याद आ रहा हैभीष्म पितामह बाणो की शय्या पर लेटे हुए हैं । मृत्यु को रोके हुए है । समस्त पाण्डवदल नतमस्तिक होकर पितामह के चारों तरफ खड़ा है । पितामह ने कहा मुझे प्यास लगी है। सूर्यास्त हो रहा है। पानी लेकर तुरन्त सभी लोग दौडे। पितामह ने नहीं पिया और उदास हो गए। फिर बोले, मुझे मेरी इच्छा का पानी अर्जुन ही पिला सकता है। ये
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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