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________________ मन्त्र और मातृकाए / 43 रूप में मन की तीन अवस्थाए मानी गयी है । चित्त मन की सुप्त एवं अशान्त अवस्था है । चिद् मन की चैतन्यमय जागृत अवस्था है और चिति मन की एक अवस्था है। जब बहु साक्षात् ब्रह्म रूप होकर सर्वव्यापी एवं पूर्ण स्वतन्त्र हो जाता है । इसे ही जीवित-भक्ति के रूप मे भारतीय धर्मों ने स्वीकार किया है । मन्त्र शब्द के इस अर्थ से भी धर्म से इसका अमेदत्व ही सिद्ध होता है । " यद्यपि इस मन्त्र का यथार्थ लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है, तो भी लौकिक दृष्टि से यह समस्त कामनाओं को पूर्ण करता है । *" इद अर्थमन्त्र परमार्थतीय परम्परा गुरु परम्परा प्रसिद्ध विशुद्धोपदेशम् ।" अर्थात् अभीष्ट सिद्धिकारक यह मन्त्र तीर्थकरो की परम्परा तथा गुरु परम्परा में अनादिकाल मे चला आ रहा है। आत्मा के समान यह अनादि और अविनश्वर है । मन्त्र और मातृकाएं : भारतीय तान्त्रिक परम्परा के ग्रन्थों में निःश्रेयस (मोक्ष) प्राप्ति एवं ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के साधन के रूप मे मन्त्रो को स्वीकार किया गया है। उपकारक कर्मों के अनुष्ठान को तन्त्र कहा गया है। कर्म सहति ही तन्त्र है । वास्तव मे तन्त्र और आगम को पर्याय के रूप मे भी स्वीकृति प्राप्त है । मन्त्रों की महनीयता का रहस्य तन्त्रो मे निहित है । सामान्य जन मन्त्रो की इस गहराई और विस्तार को न समझ पाने के कारण उनमें अविश्वास करने लगते है । मन्त्रो की रचना में अक्षर, वर्ण एव वर्णमाला का अनिवार्य योग है । वास्तव मे वर्ण और वर्णमाला marat और सगठित रूप मे साक्षात् मन्त्र ही है । यही कारण है कि वर्णों को मन्त्रो को मातृका -शक्ति कहा गया है। "अकारादि क्षकरान्ता वर्णः प्रोक्तास्तु मातृकाः । सृष्टिन्यास स्थितिभ्यास संहृतिन्यासतस्त्रिधा ॥" - जयसेन प्रतिष्ठा पाठ श्लोक 376 अर्थात् आकार से लेकर क्षकार पर्यन्त वर्ण मातृका वर्ण कहलाते है । इन वर्णों का क्रम तीन प्रकार का है - सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और सहारक्रम । णमोकार मन्त्र मे यह क्रम है - यथास्थान इसका विवेचन * " मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन" डॉ० नेमीचन्द्र जैन ज्योतिषाचार्य, पृ० 17, पृ० 581
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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