SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मन्त्र और मन्त्रविज्ञान | 33 से 'ल' ध्वनि का निर्माग होता है। कोई तरल पदार्थ जब स्थूल होने की प्रक्रिया से गुजरता है तो 'ल' ध्वनि होती है। जल प्रवाह से वं" ध्वनि प्रकट होती है। 'व' ही जल का आधार है। 'व' से जल भी पैदा किया जा सकता है और जल से 'व' ध्वनि पैदा होती ही है। तस्वो के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के समस्त क्रियाकलापों में ध्वनि सर्वोपरि है। रडार आदि का आविष्कार इसी प्रक्रिया के बल पर हुआ। मन्त्रवादियों और मन्त्रसृष्टाओ ने इसी तथ्य को ध्यान मे रखकर मन्त्र रचना की थी। तत्त्वो की शक्ति उनकी क्रिया मे ही प्रकट होती है। वर्णमाला में शक्ति स्वरो मे है। व्यजन मूल हैं किन्तु वे स्वरों की सहायता पाकर ही सक्रिय होते हैं। स्वत वे कुछ नही करते या कर पाते। यही कारण है कि व्य जनो को योनि कहा गया है और स्वरो को विस्तारक कहा गया है। स्वरो से सयुक्त होते ही व्यजन उद्दीप्त हो उठते है। व्यजनो को तत्त्वो के धरातल पर पाच वर्गों में विभाजित किया गया है। समान धर्मिता के कारण तत्त्वो और वो की यह व्यवस्था की गयीपृथ्वी तत्त्व क, च, ट, त,प प्रथम अक्षर जल तत्त्व ख, छ, ठ, थ, फ, द्वितीय अक्षर अग्नि तत्त्व ग, ज, ड, द, ब तृतीय अक्षर वायु ध, झ, ढ, घ, भ चतुर्थ अक्षर आकाश ड, ञ, ण, न, म पचम अक्षर इस प्रकार वर्णो को शक्ति समुच्चय के साथ पकडा गया। अब आवश्यकता पडी कि शब्दों को जीवन के साथ कैसे जोडा जाए? सष्टि के विकास और ह्रास को कैसे समझा जाए ? जीवन की सारी स्थितियों को कैसे समझे ? व्याकरण, दर्शन और भाषा विज्ञान ने अपने ढग से यह काम किया है। सभी शब्द तत्त्वो के मिलन हैं। ___ मन्त्र विज्ञान की वैज्ञानिकता को समझने के लिए हम महामन्त्र णमोकार के प्रथम परमेष्ठी वाची अर्ह (अरिहताण) को ले ले। अह मूल शब्द था। अह मे अप्रपञ्च जगत् का प्रारूप करने वाला है और 'ह' उसकी लीनता का द्योतक है। अहं में अन्त में है बिन्दु (') यह लय का प्रतीक है। बिन्दु से ही सृजन है और बिन्दु में ही लय है। यह प्रश्न उठता है कि सृजन और मरण की यह यान्त्रिक क्रिया है इसमें जीवन
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy