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________________ मन्त्र और मन्त्रविज्ञान / 27 हम अपने मूल स्वरूप में उतरने लगते है । यह निर्विकार अवस्था जीवन की चरम उपलब्धि है । मन्त्र की भाषा, नादशक्ति और ध्वनि तरंग का सामान्य जीवन की भाषा से और व्याकरण की भाषा से बहत अन्तर है। सामान्य भाषा और व्याकरण की भाषा तो सार्थक और सीमित होती है, वह मन्त्र की अनन्त अर्थ महिमा और ध्वनि विस्तार को धारण नही कर सकती। यही कारण है कि मन्त्र में उसकी ध्वन्यात्मकता का बहुत महत्त्व है। ध्वनि का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मे बहत अधिक अर्थ है। श्री जैनेन्द्रजी ने कहा है कि सार्थक भापा मे मन्त्र शक्ति कठिनाई से उत्पन्न हो सकती है, क्योंकि वह अर्थ तक सीमित रहती है। जिसमे ध्वनि और नाद है यह असीमित है। उसमे अनन्त शक्ति भी डाली जा सकती है। मन्त्रविज्ञान : मन्त्रविज्ञान से तात्पर्य है मन्त्र को समझने की विशिष्ट ज्ञानात्मक प्रक्रिया। यह प्रक्रिया विश्वास और परम्परा को त्यागकर ही आगे बढती है। इस विज्ञान का कार्य है मन्त्र के पूर्ण स्वरूप और प्रभाव को प्रयोग के धरातल पर घटित करके उसकी वास्तविकता स्थापित करना। जब तक अध्ययनकर्ता तटस्थ एव रचनात्मक दृष्टि से सम्पन्न नही है तब तक वह इस प्रक्रिया में सफल नहीं हो सकता। इसी प्रकार मन्त्रविज्ञान का दूसरा महत्त्वपूर्ण विज्ञान रहम्य है उसमे निहित (मन्त्र में निहित) अर्थ, भाषा, भाव एवं चैतन्य के ऊर्वीकरण की निधि को विभिन्न स्तरों पर समझना। आशय यह है कि मन्त्र के बहुमुखी चैतन्य की गुणात्मक व्यवस्था को व्यवस्थित होकर समझना मन्त्र. विज्ञान है। ___ अनुभति-जन्य ज्ञान निश्चित रूप से चिन्तन और सिद्धान्त-प्रमूत ज्ञान से अधिक विश्नसनीय, प्रत्यक्ष एवं व्यापक है । मन्त्र विज्ञान में भी हम ज्यों-ज्यों मन्त्र की गहराई मे उतरेंगे हमारा बौद्धिक एव सैद्धान्तिक चिन्तन छूटता जाएगा और एक विशाल अनुभूति हम में उभरती जाएगी। मन्त्रविज्ञान वास्तव में विश्लेषण से सश्लेषण की प्रक्रिया है। अहंकार का पूर्णत्व में विलय मन्त्रविज्ञान द्वारा स्पष्ट होता है। अतः मन्त्रविज्ञान को समझने के चार स्तर हैं-1. भाषा का
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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