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________________ मन्त्र और मन्त्रविज्ञान | 23 हम शक्ति बाहर से प्राप्त नही करते अपितु हमारी सुषुप्त अपराजेय चैतन्य शक्ति जागृत एवं सक्रिय होती है। मन्त्र का व्युत्पत्यर्थ एवं व्याख्या : मन्त्र शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। इस शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की जा सकती है और कई अर्थ भी प्राप्त किए जा सकते है__ मन्त्र शब्द 'मन' धातु (दिवादि गण) में प्टन (त्र) प्रत्यय तथा पत्र प्रत्यय लगाकर बनता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार इसका अर्थ होता है-जिसके द्वारा (आत्मा का आदेश) अर्थात स्वानुभव या साक्षात्कार किया जाए वह मन्त्र है। दूसरी व्युत्पत्ति मे मन धातु का 'विचारपरक' अर्थ लगाया जा सकता है और तब अर्थ होगा-मन्त्र वह है जिसके द्वारा आत्मा की विशुद्धता पर विचार किया जाता है। तीसरी व्युत्पत्ति में मन् धातु को सत्कारार्थ मे लेकर अर्थ किया जा सकता है-मन्त्र वह है जिसके द्वारा महान् आत्माओ का सत्कार किया जाता है। इसी प्रकार मन् को शब्द मानकर (क्रिया न मानकर) त्राणार्थ मे व प्रत्यय जोडकर पुल्लिङग मन्त्रः शब्द बनाने से यह अर्थ प्रकट होता है कि मन्त्र वह शब्द शक्ति है जिससे मानव मन को लौकिक एवं पारलौकिक त्राण (रक्षा) मिलता है। मन्त्र वास्तव में उच्चरित किए जाने वाला शब्द मात्र नहीं है. उच्चार्यमान मन्त्र, मन्त्र नही है। मन्त्र में विद्यमान अनन्त एवं अपराजेय अध्यात्म शक्ति परमेष्ठी शक्ति एव देवी शक्ति ही मन्त्र है। अतः मन्त्र शब्द मे मन +7 ये दो शब्द क्रमशः मनन-चिन्तन और वाण अर्थात् रक्षा और शुभ का अर्थ देते है। मनन द्वारा मन्त्र पाठक को 1. मन् धातु के अनेक अर्थ है-यथा-(1) आदेश ग्रहण, (2) विचार करना, (3) सम्मान करना। 2. मन् शब्द को सज्ञा मानने पर उसका अर्थ होगा—मानव-मन को जिससे व अर्थात् नाण (रक्षा एव शान्ति) मिले। 3. "वर्णात्मको न मन्त्रो, दशमुजदेहो न पञ्चवदनोऽपि । सकल्पपूर्व कोटी, मादोल्मासो मवेन्मन्त्रः ॥" महार्थ मजरी-पृ० 102
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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