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________________ धर्म और उसकी आवश्यकता / 21 सर्वथा नये चैतन्य के साथ उभरना है। यदि और विलम्ब हुआ तो फिर मानव उस पाशविक धरातल पर पहुच चुका होगा, जहा से उसे आत्मा का स्वर सुनाई ही नही देगा । भौतिक विकास और उपलब्धियो का पूर्ण स्वामी होकर भी मानव ने इनकी पराधीनता स्वीकार कर ली है । मानव चरित्र का ऐसा पतन इस युग की सबसे बडी क्षयकरी दुर्घटना है । धर्मरूप - मन्त्रो का प्रमुख महत्व उनकी पारलौकिकता एव अध्यात्म दृष्टि मे है । लौकिक-मंगल की पूर्ण प्राप्ति उससे संभव है परन्तु वह गौण है । वास्तव में अति सक्षेप मे - सूत्र रूप मे मन्त्रों द्वारा ही किसी धर्म को समझा जाता है। जब-जब कोई धर्म लुप्त होता है तो केवल मन्त्रो की ही जिह्वास्थता शेष रहती है और हम कालान्तर में अपने अतीत से पुन: जुड जाते है । जैन महामन्त्र अनाद्यनन्त है । उसमें जैन धर्म का समस्त आचार-विचार पूर्णतया अन्त स्यूत है
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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