SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 112 / महामन्त्र णमोकार : एक वैज्ञानिक अन्वेषण अवस्था है जो अपने आलम्बन के प्रति पूर्णतया एकाग्र होती है। एकाकी चिन्तन ध्यान है। चेतना के विराट आलोक मे चित्त विलीन हो जाता है।" श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया से प्राणायाम का सम्बन्ध बहुत अधिक नही है, यह ध्यान मे रखना है। प्राणायाम की साधना के विभिन्न उपाय है । श्वास-प्रश्वास की क्रिया उनमे से एक है। प्राणायाम का अर्थ है प्राणो का सयम । भारतीय दार्शनिको के अनुसार सम्पूर्ण जगत् दो पदार्थों से निर्मित है। उनमे से एक है आकाश । यह आकाश एक सर्वायुस्यूत सत्ता है। प्रत्येक वस्तु के मूल मे आकाश है । यही आकाश वायु, पृथ्वी, जल आदि रूमो मे परिचित होता है। आकाश जब स्थूल तन्वों मे परिचित होता है। तभी हम अपनी इन्द्रियो से इसका अनुभव करते है। सृष्टि के आदि मे केवल एक आकाश तत्व रहता है यह आकाश किस शक्ति के प्रभाव से जगत् में परिणत होता है-प्राण शक्ति से। जिस प्रकार इस प्रकट जगत् का कारण आकाश है उसी प्रकार प्राण शक्ति भी है। प्राण का आध्यात्मिक रूप-योगियो के मतानुसार मेस्दड के भीतर इडा और पिगला नाम के दो स्नायविक शक्ति प्रवाह और मेरुदडस्थ मज्जा के बीच एक सुषुम्ना नाम की शून्य नली है। इस शून्य नली के सबसे नीचे कुण्डलिनी का आधारभूत पदम अवस्थित है। वह त्रिकोणात्मक है । कुण्डलिनी शक्ति इस स्थान पर कुडलाकार रूप मे अवस्थित है जब यह कुडलिनी शक्ति जगती है, नव वह इस शून्य नली के भीतर से मार्ग बनाकर ऊपर उठने का प्रयत्न करती है और ज्योवह एक-एक सोपान ऊपर उठती है, त्यो त्यो मन के स्तर पर स्तर खुलते चले जाते है और योगी को अनेक प्रकार की अलौकिक शक्तियो का साक्षात्कार होने लगता है। उनमे अनेक शक्तिया प्रवेश करने लगती हैं। जब कडलिनी मस्तक पर चढ जाती है, तब योगी सम्पूर्ण रूप से शरीर और मन से पथक होकर अपनी आत्मा मे लीन हो जाता है। इस प्रकार आत्मा अपने मुक्त स्वभाव की उपलब्धि करती है। कुडलिनी को जगा देना ही नत्त्व-ज्ञान, अनुभूति या आत्मानुभूति का एकमात्र उपाय है। कुडलिनी को जागृत करने के अनेक उपाय है। किसी की कडलिनी भगवान के प्रति उत्कट प्रेम से ही जागृत होती है।
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy