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________________ योग और ध्यान के सन्दर्भ में णमोकार मन्त्र | 109 कायोत्सर्गश्चपर्यडू प्रशस्तं कश्चिदीरितम्। देहिनावीर्यवैकल्यात् काल दोषेय सम्प्रति ।। ___-ज्ञानार्णव प्र. 19, श्लोक 22 प्राणायाम-श्वास एव उच्छवास के साधने की क्रिया को प्राणायाम कहते हैं। शारीरिक सामर्थ्य बढाने के साथ-साथ ध्यान मे मानसिक एकाग्रता बढाने के लिए प्राणायाम किया जाता है। वास्तव मे शारीरिक वायु को (पच पवन या पच प्राण) साधना ही प्राणायाम है । प्राणायाम के सामान्यतया तीन भेद हैं--पूरक, रेचक, कुम्भक । पूरक-नासिका छिद्र के द्वारा वायु को खीचकर शरीर मे भरना पूरक प्राणायाम कहलाता है । रेचक-इस खीची हुई पवन को धीरेबाहर निकालना रेचक है। कुम्भक-पूरक पवन को नाभि के अन्दर स्थिर करना कुम्भक प्राणायाम है। वायुमडल चार प्रकार का है-पृथ्वीमडल, जलमडल, वायुमडल एव अग्निमडल । इन चारों प्रकार के पवनो को भीतर लेने और बाहर फेकने से जय, पराजय, लाभ, हानि सभव होते है। योगी इन पवनो को नियन्त्रित करके अनेक प्रकार के लौकिक एव पारलौकिक चमत्कारो का अनुभव करते हैं । नियन्त्रित प्राणवायु के साथ मन को हृदय कमल मे विराजित करने वाला योगी परमशान्त निविषयी और सहजानन्दी होता है। प्राण के प्रकार-प्राण एक अखड शक्ति है उसे विभाजित नहीं किया जा सकता। फिर भी सुविधा और जीवन-सचालन की दृष्टि में उसके पाच भाग किये जाते है-प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान। प्राण-प्राण का मुख्य स्थान कठ नली है। यह श्वास पटल मे है। इसका कार्य अविराम गति है। श्वास-प्रश्वास एव भोजन नलिका से इसका सीधा सम्बन्ध है । अपान-नाभि से नीचे इसका स्थान है। यह मूलाधार से जुडी हुई शक्ति है । यह वायु स्वाभावत. अधोगामिनी है। यह प्राण वायु (अपान वायु) गुदा, आत एव पेट का नियन्त्रण करती है। यह ऊर्ध्वमुखी होने पर प्राण घातक हो सकती है। प्राय यह ऊर्ध्वमुखी होती नही है । समान- हृदय और नाभि के मध्य इसकी स्थिति है। पाचन क्रिया में यह सहायक है। उदान-इससे नेत्र, नासिका, कान
SR No.010134
Book TitleNavkar Mahamantra Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain, Kusum Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year1993
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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