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________________ मौन ही रक्क्षा और सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाने पर ही उन्होने धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया। उनका उपदेश केवल मौखिक ही नहीं था, अपितु जिस मार्ग पर चलकर वे स्वय अर्हन्त बने, उसी मार्ग पर चलने के लिये ही उन्होंने ससार के प्राणियो को उपदेश दिया। न तो उन्होंने कभी यह दावा किया कि वे ईश्वर के अवतार हैं अथवा ईश्वर के द्वारा संसार के कल्याण के लिए भेजे गये कोई विशिष्ट व्यक्ति हैं, न उन्होंने ससार को अपने पीछे चलने का नारा ही लगाया । उन्होने तो यहां तक कहा, "जो कुछ मैंने कहा है, उसको केवल इसलिए ही सत्य न समझो कि वह मैंने कहा है। अपितु यदि आप उसको अपने स्वय के चिन्तन, मनन व अनुभव के द्वारा सत्य पाओ, तभी सत्य समझो।" इस प्रकार उनके मार्ग मे अन्धश्रद्धा व अन्धविश्वास को कोई स्थान नहीं था। उनका सम्पूर्ण जीवन एक खुली पुस्तक के समान था जिसका कोई भी अध्ययन कर सकता था और जहां पर कोई भी छिपाव व दुराव नही था। उनकी कथनी व करनी में कोई भी अन्तर न होने के कारण उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म शीघ्रता से देश व विदेशों में फैल गया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने धर्म का प्रचार करने के लिए कभी भी बल प्रयोग का सहारा नहीं लिया। इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि धर्म प्रचार के लिये आज तक किसी भी जैन धर्मावलम्बी ने हिंसा का सहारा नहीं लिया। एक सर्वोच्च त्यागी - साधना के लिये गृह-त्याग करते समय जीवन के लिये अति आवश्यक वस्तुबो की तो बात ही क्या, भगबान महावीर ने अपने शरीर पर सूत का एक तार तक
SR No.010132
Book TitleMahavir aur Unki Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Radio and Electric Mart
PublisherPrem Radio and Electric Mart
Publication Year1974
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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