SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह जीव मुक्ति पाने का अधिकारी हो जायेगा। अपने कर्मों को नष्ट करने में उसे किसी भी अन्य जीव की सहायता की अपेक्षा नहीं है। यह कार्य वह स्वयं, और केवल स्वय ही, अपने सत्पुरुषार्थ के द्वारा कर सकता है। एक बार मुक्ति प्राप्त कर लेने पर यह बात्मा अनन्त काल तक मुक्ति में ही रहती है, और फिर लौटकर संसार मे नही आती, क्योकि इस जीव को ससार में जन्म मरण कराने व सुख दुःख देने के कारण जो कर्म होते हैं, उनका ही सर्वथा अभाव हो जाता है। मुक्ति मे इस जीव के साथ किसी भी प्रकार का भौतिक शरीर नही रहता, और न उसको किसी प्रकार का भौतिक सुख प्राप्त करने की इच्छा ही रहती है । मुक्ति में यह आत्मा अनन्त काल तक एक अनुपम, अतीन्द्रिय, सच्चे सुख का उपभोग करती रहती है। भगवान महावीर ने बतलाया कि यह मुक्ति का द्वार किन्ही विशिष्ट व्यक्तियो के लिए ही नहीं अपितु ससार के प्रत्येक प्राणी के लिए खुला हवा है, केवल उसको सम्यक् पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। तत्कालीन धार्मिक परिस्थितियाँ भगवान महावीर के जन्म के समय दो प्रकार की विचार धाराएं प्रचलित थीं-एक श्रमण और दूसरी वैदिक । वैदिक विचारधारा वेदो के अनुसार क्रियाकाण्ड और यज्ञो के मनुष्ठान पर बल देती थी, जबकि श्रमण विचारधारा, व्यक्ति की पवित्रता, अहिंसा, सयम, तप और उसकी मात्मोन्नति पर अधिक बल देती थी। उस समय के क्षत्रिय अधिकतर श्रमण विचारधारा के पोषक थे और ब्राह्मण वैदिक विचारधारा के।
SR No.010132
Book TitleMahavir aur Unki Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Radio and Electric Mart
PublisherPrem Radio and Electric Mart
Publication Year1974
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy