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________________ ( परोपकार करने की भावना) रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करू, बने जहा तक इस जीवन में, औरों का उपकार करू ||४|| ( समस्त जीवो से मंत्री रखने की भावना) मैत्री भाव जगत मे मेरा, सब जोवो से नित्य रहे, दीन दुखी जीवो पर मेरे, उर से करुणा स्त्रोत बहे । दुर्जन, क्रूर, कुमार्ग - रतो पर, क्षोभ नही मुझको आवे, साम्यभाव रक्यूँ मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ||५|| ( गुणी जनो की सेवा करने और उनके गुण ग्रहण करने की भावना) गुणी जनो को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड आवे, बने जहा तक उनकी सेवा, करके यह मन सुख पावे । होऊ नही कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे, गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषो पर जावे ॥६॥ ( न्याय मार्ग पर दृढ़ रहने की भावना) कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे, अनेक वर्षों तक जीऊ, या मृत्यु आज ही आ जावे । अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने आवे, तो भी न्याय मार्ग से मेरा, कभी न पग डिगने पावे ॥७॥ (समता भाव रखने तथा निडर व सहनशील बनने की भावना) होकर सुख मे मगन न फूलें, दुख में कभी न घबरावें, पर्वत नदी श्मशान भयानक, अटवी से नहीं भय लावें । रहे अडोल अकम्प निरन्तर यह मन हढ़तर बन जावे, इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलावे ||८|| १७३
SR No.010132
Book TitleMahavir aur Unki Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Radio and Electric Mart
PublisherPrem Radio and Electric Mart
Publication Year1974
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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