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________________ फल समझकर, उनको तटस्थ व समताभाव से सहन करना चाहिए। इस प्रकार तटस्थ व समताभाव से सुख व दुःख सह लेने पर हमारे पुराने कर्म तो अपना फल देकर नष्ट हो ही जायेगे, भविष्य के लिये भी हमारे कर्मों के सचय होने की सम्भावना बहुत कम रह जायेगी और इस प्रकार शनै -शन हमारे दुखो के कारणो का अभाव होता जायेगा। इस प्रकार की साधना करते रहने से तथा समताभाव से तप करते रहने से एक समय अवश्य ही ऐसा आयेगा जब हमारे दुखों के कारणों-समस्त कर्मों का सर्वथा अभाव हो जायेगा। यहां पर यह तथ्य भी ध्यान में रखने योग्य है कि हमे जो भी सुख व दुख मिलते रहते हैं, वे अधिकाश मे स्वयमेव ही मिलते रहते हैं। ऐसा तो बहुत कम होता है कि कोई अन्य व्यक्ति हमे दुख व सुख दे, तभी हम दुखी व सुखी हो। जैसे कि हम किसी दुर्घटना मे फंस जाते हैं, हम रोगग्रस्त हो जाते हैं, हमे व्यापार मे हानि हो जाती है, हमारे किसी इष्ट मित्र व सम्बन्धी की मृत्यु हो जाती है, ऐसे दुख हमे स्वयमेव ही मिलते रहते हैं। इन दुःखों के लिये हम किसी अन्य व्यक्ति को उत्तरदायी न मानकर इन्हे अपने कर्मों का ही फल मानते हैं। तो फिर कभीकभी जो दु.ख हमे किन्ही अन्य व्यक्तियो के निमित्त से मिलते हैं, उनको भी हम अपने कर्मों का ही फल क्यो न माने? यह संसार अनादि व अनन्त है भगवान महावीर ने यह भी बतलाया कि यह संसार तथा इसकी समस्त आत्माएं व पुद्गल द्रव्य अनादि व अनन्त हैं। (अनादि-अन+आदि का अर्थ है जिसका
SR No.010132
Book TitleMahavir aur Unki Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Radio and Electric Mart
PublisherPrem Radio and Electric Mart
Publication Year1974
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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