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________________ २४६] प्राचीन जैन स्मारक । लंकदेव जैनाचार्यने अपनी विद्वत्ताका प्रभाव बताया था। सहसतुं. गका नाम दंतिदुर्ग भी था। (३) चालुक्यवंशजोंका श्रवणबेलगोलाके लेखोंमें वर्णन । (६) नं० ६९८ (६५) सन् ११०० कहलेवस्तीके द्वारके खंभेपर । इसमें कथन है कि गुणचंद्र जयसिंह प्रथम मल्लिका मोदशांतिसा उपाधिधारीका पूजक था। इसमें यह भी है कि चालुक्योंकी राज्यधानीमें वासवचंद्र बहुत प्रसिद्ध हुए उनको बालसरस्वतीकी उपाधि मिली थी। (२) नं० ६७ सन् ११.९ कहता है कि राजा जयसिंह प्रथमने श्री वादिराजस्वामी जैनाचार्यकी प्रतिष्ठाकी तथा उनको राजा अहवमल्ल (१ ० ४२-- १०६८)की सभामें "शब्द चतुर्मुख'की उपाधि मिली थी। (४) होयसालवंशजोंका लेखोंमें कथन । नं० १३२ (५६) ता ११२३ गंधवारणवस्ती, १४३ (६३) ता० ११३१ तीसरा स्तंभ गंधवारणवस्ती, नं० ३८४ (१४४) ता० ११३५ अरगलवम्तीके द्वारकी दाहनी तरफ । इनमें होयसाळ वंशावली राजा विनयढित्यसे विष्णुबर्डन तक दी हुई है। लेख नं० ३४५ (१३७) सन् ११५४ व नं० ३४९ (१३८) ता० ११५९ भण्डार वस्ती । इनमें भी वंशावली विनयदित्यसे नरसिंह प्रथम तक दी है। नं० ३२७ (१२४) सन ११८१ अकनवस्ती व नं० ३३५ (१३०) सन् ११९५ नगर जिनालय । इनमें विनयदित्यसे वल्लाल द्वि० तक वंशावली है।
SR No.010131
Book TitleMadras aur Maisur Prant ke Prachin Jain Smarak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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