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________________ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm १५२] प्राचीन जैन स्मारक । पुलकेशी दोनों राजाओंके नाम हुइनसांग चीन यात्रीने लिये हैं । पुलकेसीका सम्बन्ध फारसके राजा खुशरो द्वि० से था। दोनों परस्पर भेट भेना करते थे। पुलकेशीके मरणके पीछे पल्लवोंने इन पश्चिमी चालुक्योंको बहुत हानि पहुंचाई परन्तु विक्रमादिखने अपनी शक्ति फिर जमाली। इसने पांड्य, चोल, केरल और कलभ्रराजाओंको जीता तथा कांचीको लेकर पल्लवराजाका मस्तक अपने चरणोंपर नमाया। इसके पीछे तीन और राजाओंने अपनी विजय जारी रक्खी । यहांतक कि गुप्त और गंगोंको तथा सीलोन तकके राजाओंको अपने आधीन कर लिया। राष्ट्रकूट या राह-राष्ट्रकूटोंने राजा दतिदुर्ग और कृष्ण या कन्नरके नीचे स्वतंत्र अपना प्रभाव जमाया और आठवीं शताब्दीके मध्यसे २०० वर्षांतक बहुत ऐश्चर्यशाली रहे । इन राष्ट्रकूटोंको राट्ट भी कहते हैं और इनके राज्यको रावाड़ी कहते थे । इनकी राज्यधानी पहले मयूरखण्डी (मोर खंड जिला नासिक)में थी फिर नौमी शताब्दीके प्रारम्भमें मान्यखेड़ (निजाम राज्यमें मलखेड़)पर हुई । उनकी साधारण उपाधि वल्लभ थी जो चालुक्योंसे प्राप्त हुई थी। प्राकृतमें वल्लह कहते हैं । दशवीं शताब्दीके अरब यात्रियोंने उनको वल्हार नामसे लिखा है । आठवीं शताब्दीके अन्तमें ध्रुव या धारावर्षने पल्लव राजासे कर लिया और गंगोंके राजाको कैद कर लिया जिनको उस समय तक किसीने नहीं जीता था । इस मध्यकाल में राष्ट्रकूटोंसे नियत गवर्नर गंग राज्यका शासन करते रहे जिनमें एक शिलालेख कंभरस या राणावलोकका नाम लेता है जो धारावर्षका पुत्र था । सन् ८१३में चाकी राजा या राष्ट्रकूट राजा
SR No.010131
Book TitleMadras aur Maisur Prant ke Prachin Jain Smarak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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