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________________ ii (4) परमपद में लीन हो जाना रहस्यवाद की प्रमुख अभिव्यक्ति है । इसमें free wear at salt पवित्र अवस्था तक पहुंच जाता है कि वह स्वयं परमात्मा बन जाता है । बात्मा और परमात्मा का एकाकारत्व एक ऐसी अवस्था है जहां aree समस्त दुःखों से विमुक्त होकर एक अनिर्वचनीय शाश्वत चिदानन्द चैतन्य का रसपान करने लगता है। इसी को शास्त्रीय परिभाषा में हम निर्वारण प्रथवा मोक्ष कहते हैं । मुक्त अवस्था में श्रात्मा और परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है । इसी तादात्म्य को समरस कहा गया है। जैन धर्म में ब्रात्मा और परमात्मा का यह तादात्म्य अखंड ब्रह्म के अंश के रूप में स्वीकार नहीं किया गया, बहां तो विकारों से मुक्त होकर श्रात्मा ही परमात्मा बन जाता है । इस सन्दर्भ में हम भागे के प्रध्यान में विशद विवेचन करने का प्रयत्न करेंगे। परन्तु यहां इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि जैन धर्म में श्रात्मा के तीन स्वरूप वरिणत हैं—बहिरात्मा, अन्तरात्मा भीर परमात्मा । बहिरात्मा मिथ्यादर्शन के कारण विशुद्ध नहीं हो पाता । अन्तरात्मा में विशुद्ध होने की क्षमता है पर वह विशुद्ध अभी हुप्रा नहीं तथा परमात्मा श्रात्मा का समस्त कर्मों से विमुक्त और विशुद्ध स्वरूप है । प्रात्मा के प्रथम दो रूपों को साधक और अन्तिम रूप को साध्य कहा जा सकता है। साधक अनुभूति करने वाला है और साध्य अनुभूति तत्त्व | परमात्म स्वरूप को सकल प्रोर निष्कल के रूप में विभाजित किया गया है । सकल वह है जिसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार धातिया कर्मों का विनाश हो चुका हो और शरीरवान हो । जैन परिभाषा में इसे महन्त प्रथवा अर्हत् कहा गया है। हिन्दी साहित्य में इसी को सगुण ब्रह्म कहा गया गया है । आत्मा की निष्कल अवस्था वेदनीय, आयु, नाम, और गोत्र इन चार अतिया कर्मों का भी विनाश हो जाता है। भौर आत्मा निर्देही बन जाता है । इसी को हिन्दी साहित्य में निर्गुण ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। उत्तरकालीन जन afraid मा के सकल श्रौर निष्कल अवस्था की भावविभोर होकर भक्ति प्रदर्शित की है और भक्ति भाव में प्रवाहित होकर दाम्पत्यमूलक हेतुक प्रेम का चित्रण किया है, जिसमें आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए विरह में तड़पती है, समरस होने का प्रयत्न करती है । समरस हो जाने पर वह उस अनुभूतिगत अानन्द और चिदानन्द चैतन्य रस का पान करती है । के प्रमुख तत्व रहस्य भावना किंवा रहस्यवाद strate or क्षेत्र सम्म है। उस प्रनन्त शक्ति के स्रोत को खोजना ससीम शक्ति के सम्म के बाहर है अतः संसीनता से असीमता और परम विशुद्धता तक
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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