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________________ अपभ्रंश भाषा की सरह अपभ्रंश साहित्य ने भी हिन्दी, जैन व जैनेतर साहित्य को कम प्रभावित नहीं किया है। इसे समझने के लिए हमें सक्षप में अपना जन साहित्य पर एक दृष्टिपात करना आवश्यक होगा। यह साहित्य मुख्यतः प्रबन्धकाव्य, खण्डकाव्य और मुक्तककाव्य की प्रवृत्तियों से घुला हमा है। पुराणकाव्य और परितकाव्य संवैतात्मक हैं । यहाँ जैन महापुरुषों के चरित का पाख्यान करते हुए प्राध्यात्मिकता और काव्यस्व का समन्वय किया गया है। समूचे जैन साहित्य में ये दोनों तत्व मापादमग्न हैं। अपभ्रश का प्रादिकाल भरत के नाट्यशास्त्र से प्रारम्भ होता है यहाँ छन्दःप्रकरण में उकार प्रवृत्ति देखी जाती है (मौरल्लउ, नच्चतंउ) पामे चलकर कालिदास तक आते-पाते इस प्रवृत्ति का और विकास हुआ। उनके विक्रमोर्वशीय में अपभ्रंश की विविध प्रवृत्तियां परिलक्षित होती हैं । संस्कृत-प्राकृत के छन्द तुकान्त नहीं थे। जबकि अपभ्रंस के छन्द तुकान्त मिलने लगे। गाथासे दोहा का विकास हमा । दण्डी के समय तक अपभ्रंश साहित्य अपने पूर्ण विकासकाल में प्रा एका था। साथ ही कुछ ऐसी प्रवृत्तियां भी बढ़ गई थीं जिनका सम्बन्ध हिन्दी के आदिकाल से हो जाता है । सम्भवतः इसी कारण से उद्योतन सूरि ने अपभ्रंश को संस्कृत-प्राकृत के शुद्धा-शुद्ध प्रयोगों से मुक्त माना है । कुवलयमाला से 'देसी भासा' के कुछ उदाहररण दिये भी जाते हैं जो नाटक साहित्य से लिए गए हैं। ताव इमं गीययं गीयं गामनडीए, जो जसु माणूसु बल्लहउ तंजइ प्रण रमेह । जइ सो जाणइ जीव वि तो तहु पाण लएइ ।। नाटकों में भी अपभ्रंश का प्रयोग हुमा है । शूद्रक ने उसका प्रयोग हीन पात्रों के लिए किया है। वहां माथुर की उक्ति में उकार बहुलता दिखाई देती है। स्वयंभू, पुष्पदंत प्रादि की भी अपभ्रंश रचनाएँ हमारे सामने हैं. ही। इन्हीं रखनामों में देशी भाषा के भी कतिपय रूप दिखाई देते हैं । राष्ट्रकूट और पाल राजामों के माश्रय से अपभ्रश का विकास प्राधिक हुआ। इधर मम्मट (11वीं शती), वाग्भट (12वीं शती), अमरचन्द (13वीं शती), भोज, पावन्दवर्धन जैसे.प्रालंकारिकों ने मपभ्रश के दोहों को उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत किया जो उस भाषा की महता की मोर स्पष्ट हुमित करते हैं । हेमचन्द (12वीं शती) द्वारा बल्लिखित दोहों को देखकर तो अपच के पारिणनि डॉ. रिचार्ड पोशेल भावविभोर हो गये और उन्हीं के माधार पर उन्होंने उसकी विशेषतामों का प्राकलन कर दिया जो माज भी यथावत है। दो. याकोबी ने भी 'भविसयसकहा' की भूमिका में अपनश साहित्य की विशेषताओं की भीर हमारा ध्यान प्राकर्षित किया है। इन विदेशी विद्वानों के गहन अध्ययन के कारण हमारे देश के विद्वानों का भी ध्यान अपनी साहित्य की भोर माकर्षित मा चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, रावचंद
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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