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________________ (कति-कहि) for fह पाए जाते हैं। प्राशार्थक क्रिया रूपों में उत्तम पुरुष के रूप नहीं मिलते। मध्यम पुरुष एकवचन में विविध रूप पाए जाते हैं-शून्य रूप या धातुरूप (कर) उ, ६, ६, हि वाले रूप (करि, करु, करह, करहि करि हि), बहुवचन में है, हु, हो वाले रूप ( करह, करहु, करहो) पाए जाते हैं । अन्य पुरुष एकवचन में 'उ' चिन्ह ( करउ) पाया जाता है । (v) विध्यर्थ में ज्ज का प्रयोग मिलता है-करिज्जज, करिज्जहि, करिज्जहु प्रादि । इसका प्रयोग वर्तमान और भविष्य कालार्थ में भी होता है । (vi) भविष्यकाल के रूप वर्तमान कालिक रूपों पर प्राप्त हैं। इन रूपों के बीच में स, ह का प्रयोग होता है । 'ह' रूपों के साथ वर्तमान nifer firs प्रत्ययों का ही प्रयोग होता है । (vii) भूतकाल के लिए निष्ठा प्रत्यय से विकसित कृदन्त रूप कन, हुव प्रादि रूप उपलब्ध होते हैं । (viii) कर्मरिण प्रयोगों में इज्ज ( गरिएज्जइ, व्हाइज्जइ ) के साथ मन्य ति प्रत्ययों को जोड़ दिया जाता है । परसर्गो का उदय : कहिम, (i) अपभ्रंश के प्रमुख परसर्ग हैं--होन्त- होन्त उ-होन्ति, ठिउ, केरन - केर धौर तरण | सप्तमी वाले रूप के साथ 'ठिउ' का प्रयोग होने पर पंचम्यर्थ की प्रतीति होती है । केर या केरन परसर्ग का प्रयोग किसी वस्तु से सम्बद्ध होने के अर्थ मे पाया जाता है । षष्ठी विभक्ति के परसर्ग के रूप में इसका प्रयोग प्रपभ्रंश की ही विशेषता है। करणकारक के लिए सहूं, तरण, सम्प्रदान के लिए केहि, रेसि, अपादान के लिए होन्तउ, होन्त, थिउ, सम्बन्ध के लिए केरउ, केर, कर, की, का और सप्तमी के लिए मझ, महँ प्रादि परसगों का प्रयोग प्रारम्भ हो गया । वाक्य रचना : (i) कारक- व्यत्यय अधिक देखा जाता है । षष्ठी का प्रयोग सभी कारकों के लिए हुआ है। सप्तमी का प्रयोग कर्म तथा करण के लिए पंचमी विभक्ति का प्रयोग करणकारक के लिए तथा द्वितीया का प्रयोग afreरण के लिए देखा जाता है । (ii) अपभ्रंश में निविभक्तिक पदों के प्रयोग के कारण वाक्य रचना निश्चित सी हो चली है।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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