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________________ (ii) पद के मादि में संयुक्त व्यंजन नहीं रखता, मात्र, ह, मह, ल्ह संयुक्त ध्यनियाँ ही मादि में मा सकती हैं। इसकी प्रति के लिए हेमचन्द ने 'रफ' का मागम माना है। जैसे-व्यास (वासु), दृष्टि (ट्रेटि)। पर इनका प्रयोग कम मिलता है। (iii) शोर ष का प्रयोग प्रायः समाप्त हो गया। य के स्थान पर 'ज' का प्रयोग हुप्रा है। (iv ) संयुक्त-व्यंजन की संख्या मात्र 31 रह गई। (v) मध्यवर्ती 'म' का 'व' हो जाता है। प्रायः 'न' तन्सम शब्दों में सुरक्षित रहता था पर तद्भव रूपों में एक साथ 'म', 'वे' दोनों रूप मिलते हैं। जैसे-नाम-गांव, सामल-सविल । (vi) अन्त्य स्वर का हस्वीकरण । (i) अपभ्रंश में व्यंजनांत (हलन्त) शब्द नहीं मिलते हैं। जैसे मरण (मनस्), जग (जग), पप्पण (प्रात्मन्) । इसलिए अपभ्रंश के सभी शब्द स्वरांत होते हैं। (ii) लिंग की कोई विशेष व्यवस्था नहीं रहती, फिर भी साधारणतः परम्परा का ध्यान रखा जाता रहा है। (iii) वचन दो ही होते हैं। विभक्तियां और शम्ब रूप (i) प्राकृत में चतुर्थी और षष्ठी का प्रभेद स्थापित हुमा था पर अपभ्रश मे इसके साथ ही द्वितीया पौर चतुर्थी, सप्तमी और तृतीया, पंचमी तथा षष्ठी के एक वचन तथा प्रथमा एवं द्वितीया का भेद समाप्त हो गया। ( i ) प्रथमा एकवचन मे प्राकृत का 'मो' वाला रूप पुत्सो तथा 'उ' वाले रूप पुत्त, पुसुन रूप मिलते हैं। कहीं कहीं शूग विभक्ति रूप 'पुस' भी मिलता है। (ii)प्रथमा तथा द्वितीया एकवचन में 'उ' विभक्ति चिन्ह मिलता है। कहीं-कहीं 'अ' वाला रूप 'पुत्त' तथा शुख प्रतिपादिक रूप 'पुत' भी मिल जाता है। (iv) अपमा-दितीया विभक्ति के बहुल्यम बों में 'मा' वाले कप 'पुत्ता' तथा शून्य रूप 'पुस' भी मिलते हैं। (v ) तृतीया तथा सप्तमी एकवचन के रूप मिश्रित हो गये हैं । इसमें
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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