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________________ 14 अलंकार ग्रन्थ इसी राजा के शासनकाल में लिखे । कुमारपाल भी इसी वंश का शासक था । वह निर्विवाद रूप से जैनधर्म का अनुयायी था । हेमचन्द्र प्राचार्य उसके गुरु थे घर भी अनेक मन्त्री, सामन्त प्रादि जैन थे । कुमारपाल के मन्त्री वस्तुपाल और तेजपाल का विशेष सम्बन्ध भाबू के जैन मन्दिरों के निर्माण से जुड़ा हुआ है । सिन्ध, काश्मीर, नेपाल, बंगाल में पालवंश का साम्राज्य रहा। वह बौद्ध धर्मावलम्बी था । उसके राजा देवपाल ने तो जैन कला केन्द्र भी नष्ट-भ्रष्ट किये । बंगाल में जैन धर्म का अस्तित्व 11-12 वीं शती तक विशेष रहा है । दक्षिण में पल्लव और पाल्य राज्य में प्रारम्भ में तो जैन धर्म उत्कर्ष पर रहा परन्तु शव धर्म के प्रभाव से बाद में उनके साहित्य और कला के केन्द्र नष्ट कर दिये गये । चोल राजा ( 985-1016 ई.) के समय यह अत्याचार कम हुआ । बाद में 'चालुक्य वंश ने जंन कला प्रौर साहित्य का प्रचार-प्रसार किया। इसी समय जैन महाकवि जोइन्दू, जटासिंहनन्ति, रविषेण, पद्मनन्दि, धनंजय, प्रार्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, परवादिमल्ल प्रनन्तवीर्य, विद्यानन्दि प्रादि प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए हैं जिन्होंने तमिल, कन्नड, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में जैन साहित्य का निर्माण किया । चामुण्डराय भी इसी समय हुआ जिसने श्रवणबेलगोल में 978 ई. में गोमटेश्वर बाहुबलि की विशाल उत्तुरंग प्रतिमा निर्मित करायी । राष्ट्रकूट वंश जैनधर्म का विशेष श्राश्रयदाता रहा है। स्वयं वीरसेन, जिमसेन, गुणभद्र, महावीराचार्य, पाल्यकीर्ति, पुष्पदन्त मादि जैनाचार्यों ने इसी राज्य काल में जैन साहित्य को रचा। कल्पारणी के कल्चुरीकाल में वासव ने जैन धर्म के सिद्धान्त मौर व धर्म की कतिपय परम्पराओं का मिश्रण कर 12वीं शती में लिंगायत धर्म की स्थापना की। उन्होंने जैनों पर कठोर अत्याचार किये। बाद में वैष्णवों ने भी उनके मन्दिर र पुस्तकालय जलाये । फलतः अधिकांश जैन शेव प्रथमा वैष्णव बन गये । अरबों, तुर्की धौर मुगलों के भीषण प्राक्रमणों से जैन साहित्य और मन्दिर भी बच नही सके । उन्हें या तो मिट्टी में मिला दिया गया अथवा वे मस्जिदों के रूप में परिणित कर दिये गये । इन्हीं परिस्थितियों के प्रभाव से भट्टारक प्रथा का विशेष प्रभ्युदय हुआ । मूर्ति पूजा का भी विरोध हुआ । लोदी वंश के राज्य काल तारण स्वामी (1448-1515 ई.) हुए जिन्होंने मूर्तिपूजा का निषेध कर 'तारणतरण' पंथ प्रारम्भ किया। इस समय तक दिल्ली, जयपुर मादि स्थानों पर भटारक गद्दियां स्थापित हो चुकी थीं। सूरत, भडोच, ईडर आदि अनेक स्थानों पर भी इन भट्टारकी गद्दियों का निर्माण हो चुका था । माचार्य सकलकीर्ति, ब्रह्मजयसागर भादि विद्वान इसी समय हुए । इसी काल में प्रबन्धों और चरितों को सरल संस्कृत
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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