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________________ 298 । कवि भाराध्य का का पश्चात्ताप करता है afe लीन हो जाता है निज घर आये || पर घर ताप के साथ भक्ति के वश है और कह देते हैं कि आप संसार में भटक रहा हूँ । तुम्हारा नाम मिलता नही । और कुछ नही तो कम से कम राग द्वेष दर्शन कर भक्तिवशात् उनके समक्ष अपने पूर्वकृत कर्मों जिससे उसका मन हल्का होकर भक्तिभाव में और वे पश्चात्ताप करते हुए कह उठते हैं- 'हम तो कबहू न फिरत बहुत दिन बीते नांव अनेक घराये' । पश्चाउपालम्भ को स्वयं तो मुक्ति में जाकर बैठ हमेशा मै जपता हूं दीजिए- आराध्य 1. 2. 3. देते हुए कुछ मुखर हो उठते गये पर मैं अभी भी तुम प्रभु कहियत दीन दवाल । श्रापन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जग जाल ।। तुमरी नाम जपं हम नीके, तुम तो हमको कछु देत नहि, बुरे भले हम भगत और कछु नहि यह हम सौ चूक परो सौ द्यानत एक बार प्रभु एक अन्यत्र स्थान पर कवि का गये व्यक्तियों का नाम गिनाता है और मेरे लिए प्राप इतना बिलम्ब क्यों कर रहे हैं पर मुझे उससे कुछ को तो दूर कर ही वही, पृ. 109 हिन्दी पद संग्रह, पृ. 114-15 धर्मविलास, 54 वा पच इस प्रकार प्रपत्त भावना के सहारे साधक अपने श्राराध्य परमात्मा के सानिध्य में पहुंचकर तत्तद्गुणों को स्वात्मा में उतारने का प्रयत्न करता है । इसमें श्रद्धा और प्रेम की भावना का प्रतिरेक होने के फलस्वरूप साधक अपने मनवच तीनो काल । हमरो कौन हवाल ॥ तिहारे जानत हो हम चाल । चाहत हैं, राग द्वेष को टाल ॥ वस्सो, तुम तो कृपा विशाल । जगते, हमको लेहु निकाल || 2 उपालम्भ देखिये जिसमें वह उद्धार किये फिर अपने इष्ट को उलाहना देता है कि मेरी बेर कहा ढील करी जी । सूली सौ सिहासन कीना, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ॥ सीता सती प्रगति मे बैठी पावक नीर करी सगरी जी । वारिषेण पे खडग चलायो, फूल माल कीनी सुथरी री । द्यात मे कछु जांचत नाहीं, कर वैराग्य दशा हमरी जी ॥ ३
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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