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________________ इतिहास का मध्ययुग साधारणत: सातवीं भाठवीं शती से 17-18 वीं शती तक माना जाता है। भारतीय इतिहासकारों ने इसे पूवर्मध्ययुग (650ई. से 1200 ई. तक) और उत्तर मध्ययुग (1200 ई.से) 1700 ई. तक) के रूप में विभाजित किया है । यह विभाजन राजनीतिक, धार्मिक, प्राधिक, ऐतिहासिक मादि प्रवृत्तियों पर आधारित है। आधुनिक भार्य भाषायें भी इसी काल की देन है। हिन्दी भाषा और साहित्य का काल विभाजन एक वैशिष्ट्य लिये हुए है। उसका मध्ययुग 1350 ई. से 1850 ई तक चलता रहता है। इस समय तक विदेशी मानमरणों के फलस्वरूप तथा ब्रिटिश राज्य के कारण सामाजिक क्रांति सुप्तावस्था में रही । असहायावस्था में ही भक्ति आन्दोलन हुए और रीतिबद्ध तथा रीतिमुक्त साहित्य का सृजन हुआ । जैन अध्यात्मवाद प्रथवा रहस्यवाद की प्रवृत्तियों को जन्म देने और उन्हें विकसित करने में राजनीतिक मध्ययुगीन अवस्था विशिष्ट कारणभूत रही है । इसको हम यहां राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न करेंगे । 1. राजनीतिक पृष्ठभूमि भारत की राजनीतिक अव्यवस्था और अस्थिरता का युग हर्षवर्धन (606647 ई.) की मृत्यु के साथ ही प्रारंभ हो गया । सामाजिक विश्व खलता और पार्थक्य भावना बलवती हो गई। भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया । ऐसी परिस्थिति में 8वीं शती पूर्वार्ध में कन्नोज में यशोवर्मा का प्राधिपत्य हुप्रा जो राष्ट्रकूटो की प्रचण्ड शक्ति के कारण छिन्न-भिन्न हो गया। उसके बाद गुर्जर प्रतिहारों ने उस पर लगभग 11वी शती तक राज्य किया। राजा वत्सराज (775800 ई.) जैनधर्म का लोकप्रिय सहायक राजा था। उसी के राज्य में जिनसेन ने हरिवंशपुराण, उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला तथा हरिभद्र सूरि ने चितौड़ में मनेक ग्रंथों की रचना की । यहां यह उल्लेखनीय है कि ऐसे निवृत्तिपरक साधकों में जैन साधक प्रधान रहे हैं जिनका जमाव पश्चिमोत्तर प्रदेश में कदाचित व्यापारिक वृत्ति के कारण for रहा है । इसलिए प्रारम्भिक हिन्दी जैन साहित्य इसी प्रदेश में सर्वाधिक मिलता है । प्रागे चलकर दिल्ली, मगघ और मध्यप्रदेश भी हिन्दी जैन साहित्य के गढ़ बने । इस साहित्य में तत्कालीन धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण भी परिलक्षित होता है । साधारणत: बारहवीं शताब्दी तक राजाओं में परस्पर युद्ध होते रहे और युद्धों का मूल कारण या श्रृंगार- प्रेम परक भावनाओं का उद्वेलन और कन्याओं का हठात् अपहरण । राजा लोग इसी में अपने पुरुषार्थ की सिद्धि मानते थे। उन पर अंकुश रखने के लिए जनता के हाथ में किसी प्रकार का सम्बल नहीं था । उनकी
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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