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________________ -291 कहाँ से प्राप्त किया। सारा संसार स्वार्थ की भोर निहारता है, पर तुम्हें स्वकल्याण रूप स्वार्थ नहीं रुचता । इस प्रपवित्र प्रचेतन देह में तुम कैसे मोहासत हो गये । अपना परम श्रतीन्द्रिय शाश्वत सुख छोड़कर पंचेन्द्रियों की विषयवासना में तन्मय हो रहे हो। तुम्हारा चैतन्य नाम जड़ क्यों हो गया और तुमने अनंत ज्ञानादिक गुणों से युक्त अपना नाम क्यों भुला दिया ? त्रिलोक का स्वतन्त्र राज्य छोड़कर इस परतन्त्र अवस्था को स्वीकारते हुए तुम्हें लब्जा नहीं श्राती ? मिथ्यात्व को दूर करने के बाद ही तुम कर्ममल से मुक्त हो सकोगे और परमात्मा कहला सकोगे। तभी तुम अनन्त सुख को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकोगे । "जीव ! तू मूढपना कित पायो । सब जग स्वारथ को चाहना है, स्वारथ तोहि न भायो । प्रशुचि समेत दृष्टि तन मांहो, कहा ज्ञान विरमायो । परम अतिन्द्री निज सुख हरि के, विषय रोग लपटाम्रो ॥ मिथ्यात्व को ही साधकों ने मोह-माया के रूप में चित्रित किया है। सगुण निर्गुण कवियों ने भी इसको इसी रूप में माना है । भूधरदास ने इसी को 'सुनि ठगनी माया ते सब जग ठग खाया' 12 कबीर ने इसी माया को छाया के समान बताया जो प्रयत्न करने पर भी ग्रहण नहीं की जा सकती, फिर भी जीव उसके पीछे दौड़ता रहता है । साधक कवि नरभव की दुर्लभता समझकर मिध्यात्व को दूर करने का . प्रयत्न करता करता है । जैन धर्म में मनुष्य जन्म प्रत्यन्त दुर्लभ माना गया है। इसीलिए हर प्रकार से इस जन्म को सार्थक बनाने का प्रयत्न किया जाता है । द्यानतराय ने "नाहि ऐसो जनम बारम्बार " कहकर यही बात कही है। उनके अनुसार यदि कोई नरभव को सफल नहीं बनाता, तो तजत ताहि गंवार" वाली कहावत उसके साथ चरितार्थ हो जायेगी । इसलिए उन्हें कहना पड़ा 'जानत क्यों नहि हे नर प्रातमज्ञानी' । ग्रात्म चेतन को "अन्ध हाथ बटेर भाई, 1. अध्यात्म पदावली, पृ. 360 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 124 संत वाणी संग्रह, भाग-9, पृ. 57 3. 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 116 5. वही, पृ. 115
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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