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________________ 287 (2) मध्यकालीन हिन्दी जैन रहस्यभावना के सन्दर्भ में साधकों का प्रकृति प्रति जिज्ञासा का भाव बहुत कम हैं जब कि श्राधुनिक रहस्यवाद विराट प्रकृति की रमणीयता में ही प्रधिक पला-पुसा है। प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी safe afart का रहस्यवाद प्राकृतिक रहस्यानुभूति के मधुर स्वर से प्रापूरित है । रहस्यमयी सत्ता का प्राभास देने में उनकी प्रवृत्ति ही सहायक होती है । लगता है, प्राचीन जैन कवि प्रकृति को ब्रह्म साक्षात्कार में बाधक तत्व मानते रहे हैं । पर sarafts afari ने प्रकृति को बाधक न मानकर उसे साधक माना है । (3) शब्दों का सीमित बन्धन रहस्यवाद की अभिव्यक्ति में समर्थ नहीं । अतः उसकी गुह्यता को स्वर देने के लिए जैन साधक कवियों ने प्रतीकों का माध्यम अपनाया। प्राचीन जैन कवियों ने समुद्र सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वन, निर्भर, हस, तुरंग, मिट्टी प्रादि उपकरणों को चुना । श्राधुनिक रहस्यवाद में भी उन उपकरणों का उपयोग किया गया है परन्तु साथ ही उसमें कुछ अभारतीय प्रतीकों का भी समावेश हो गया है । (4) आधुनिक रहस्यवाद धार्मिक दृष्टिकोण के अभाव में मात्र एक कल्पना प्रधान काव्य शैली बनकर सामने आया है, परन्तु प्राचीन रहस्यवाद में उसका अनुभूति पक्ष कहीं अधिक प्रबल दिखाई देता है । साध्य की प्राप्ति में प्रेम से नहीं बच । परन्तु प्राधुनिक (5) प्राचीन रहस्यसाधना मे दाम्पत्यमूलक प्रेम को एक विशिष्ट साधन माना गया है । निर्गुण रहस्यवादी भी इस सके। सगुणवादियों का ब्रह्म भी अविगत और गोचर हो गया afa इतने अधिक साधक नहीं बन सके । उनकी साधना सूखे फूल की मुझयी पंखुड़ियों के समान प्रतीत होती है । उसमें साधना की सुगन्धि नहीं । वह तो प्रेम और वासना की बू मे प्रतीकों की मात्र कहानी है । (6) प्राचीन जैन रहस्यवादियों के काव्य में दार्शनिक श्रौर श्राध्यात्मिक पक्ष की सुन्दर समन्वित भूमिका मिलती है पर प्राधुनिक रहस्यवाद में दार्शनिक पक्ष गौण हो गया है । व दाम्पत्यमूलक सूत्र के साथ रागात्मक सम्बन्ध के विशिष्ट योग में ब्रह्म मिलन की भातुरता छिपी हुई है । (7) मध्यकालीन जैन रहस्यवाद में संसारी श्रात्मा ही अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए तड़पती है और उसके वियोग में जलती है वही उसका प्रियतम ब्रह्म है। आधुनिक रहस्यवाद में भी इस वेदना के दर्शन होते हैं । पर विरह की तीव्र अनुभूति प्राचीन काव्य में अधिक अभिव्यक्ति हुई है। वहां प्रात्मसमर्पण की भावना, चिन्तन-मनन गर्भित है । भद्वतवाद की स्थिति दोनों में अवश्य है पर उसकी प्राप्ति के मार्गों में किचित् अन्तर है । एक में प्राचार की प्रधानता है तो दूसरे का सम्बन्ध भावों से अधिक है । रागात्मक भाकर्षण आधुनिक रहस्यवाद में कहीं अधिक है ।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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