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________________ 283 एक समान, तब हम पाया पद निरवारण' कहकर कबीर ने मुक्ति-मार्ग को निर्दिष्ट कवियों ने इसे ही भेदविज्ञान कहा है और वही मोक्ष का कारण कबीर और जैन, दोनों संसार को दुःखमय, क्षणिक और श्रनित्य किया है। जैन माना गया है मानते हैं । नरभव दुर्लभता को भी दोनों ने स्वीकार भाव को प्रन्तकर मुक्तावस्था प्राप्त करने की बात किया है। दोनों ने ही दुविधा कही है। कबीर की जीवन्मुक्त और विदेह श्रवस्था जैनों की केवली भोर सिद्ध अवस्था कही जा सकती है । स्वानुभूति को जैनों के समान निर्गुणी सन्नों ने भी महत्व दिया है । कबीर ने ब्रह्म को ही पारमार्थिक सत् माना है और कहा है कि ब्रह्म स्वयं ज्ञान रूप है, सर्वत्र व्यापक है और प्रकाशित है --' अविगत अपरपार ब्रह्म, ग्यान रूप सब ठाम जैनों का श्रात्मा भी चेतन गुण रूप है और ज्ञान दर्शन शक्ति से समन्वित है । इसी ज्ञान शक्ति से मिथ्याज्ञान का विनाश होता है । कबीर की 'मानमदृष्टि' जैनों का भेद विज्ञान अथवा आत्मज्ञान है । बनारसीदास, द्यानतराय श्रादि हिन्दी जैन कवियों ने सहजभाव को भी कबीर के समान अपने ढंग से लिया है । अष्टांग योगों का भी लगभग समान वर्णन हुआ है। शुष्क हठयोग को जैनो ने प्रवश्य स्वीकार नहीं किया है। कबीर के समान जैन कवि भी समरसी हुए हैं और प्रेम के खूब प्याले पिये हैं। तभी तो उनका दुविधा भाव जा सका । कबीर ने लिखा है पाणी ही तें हिम भया, हिम है गया बिलाइ | जो कुछ था सोई भया, अब कछु कहया नजाई ॥ इस समरसता को प्राप्त करने के लिए कबीर ने अपने को 'राम की बहुरिया ' मानकर ब्रह्म का साक्षात्कार किया है। पिया के प्रेमरस में भी कबीर ने खूब नहाया है । बनारसीदास और प्रानन्दघन ने भी इसी प्रकार दाम्पत्यमूलक प्रेम को अपनाया है। कबीर के समान ही छोहल भी अपने प्रियतम के विरह से पीड़ित है । प्रानन्दघन की आत्मा सो कबीर से भी अधिक प्रियतम के वियोग में तड़पती दिखाई देती है 18 कबीर की चुनरिया को उसके प्रितम ने संवारा' और भगवतीदास ने प्रपनी चुनरिया को इष्टदेव के रंग में रंगा 18 कबीर प्रोर बनारसीदास, दोनों का प्रेम प्रहेतुक है। दोनों की पलिया अपने प्रियतम के वियोग में जल के बिना 4. बनारसीदास ने भी ऐसा ही कहा है पिय मोरे घट मे पिय मांहि, जलतरंग ज्यो दुविधा नाहि ॥5 1. नाटक समयसार, निर्जरा द्वार, पृ. 210 2. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 241 3. वही, पृ. 100. कबीर गुंथावली, परचा कौ अंग, 17. बनारसी विलास, प्रध्यात्मगीत, 16. 5. 6. 7. 8. कबीर -डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 187. खूनी, हस्तलिखित प्रति, अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ. 94. धानम्बधन बहोत्तरी, 32-41
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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