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________________ 280 ठविली जब ठग लेती है लो वह संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगाती रहती है। वासना को यहां भी संसार का प्रमुख कारण माना गया है। मिथ्यात्व को दुःखदायी पौर भास्मशान को मोक्ष का कारण कहा गया है । अन योगसाधना के समान सूफी योग साधना भी है। अष्टांगयोग और यम-नियम लगभग समान हैं। जायसी का योग प्रेम से सम्बलित है पर जेन योग नहीं । जायसी ने राजयोग माना है, हठयोग नहीं । जन भी हठयोग को मुक्ति का साधन नहीं मानते । सूफियों में जीवनमुक्ति और जीवनोत्तर मुक्ति दोनों मुफ्तियों का वर्णन मिलता है । जीवन मुक्ति दिलाने वाली वह भावना है जो फना पौर बका को एक कर देती है । फना में जीव की सारी सांसारिक माकांक्षायें, मोह, मिथ्यात्व मादि नष्ट हो जाते है । जैनधर्म मे इसी अवस्था को वीतराग अवस्था कहा गया है। इसी को पद्वतावस्था भी कह सकते हैं जहां प्रात्मा अपनी परमोच्च अवस्था मे लीन हो जाती है। यही निर्धारण है जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के परिपालन से प्राप्त होता है । जायसी ने भी गैनो के समान तोता रूप सद्गुरु को महत्व दिया है । यही पद्मावती रूपी साध्य का दर्शन करता है। जायसी ने विरह को प्रेम से भी अधिक महत्व दिया है । इसोलिए जायसी का विरह दणन साहित्य और दर्शन के क्षेत्र मे एक अनुपम योगदान है। उत्तरकालीन जैन भक्त साधक भी इस विरह की ज्वाला में जले हैं। बनारसीदास मोर मानन्दधन को इस दृष्टि से नहीं मुलाया जा सकता। जायसी के समान ही हिन्दी गैन कवियों ने भी माध्यात्मिक विवाह और मिलन रचाये हैं । जायसी ने परमात्मा को पति रूप माना है पर वह है स्त्री-पदमावती। यद्यपि जन सायको-भक्तों ने परमात्मा का पति रूप में स्वीकार किया है पर उसका रूप स्त्री नहीं, पुरुष रहा है। बनारसीदास का नाम दाम्पत्यमूलक जैन साधको मे अग्रणीय है। नायसी और हिन्दी जैन कवियों की वर्णन शैली में अवश्य अन्तर है। जायसी ने भारतीय लोककथा का प्राधार लेकर एक सरस रूपक बड़ा किया है और उसी के माध्यम से सूफी दर्शन को स्पष्ट किया है। परन्तु जैन साहित्य के कषियों ने लोक कथामों का पाश्रय भले ही लिया हो पर उनमें वह रहस्यानुभूति नहीं जो जायसी मे दिखाई देती है । जैनों ने अपने तीर्थकर नेमिनाथ के विवाह का खुब वर्णन किया और उनके विरह में राजुल रूप साधक की पात्मा को तड़काया भी है 1. प्रवचनसार, 64%; बनारसीविलास, ज्ञानवावनी, 16-30. 2. उत्तराध्ययम, 20:37; हिन्दी पद संग्रह, पृ. 36. 3. पंचारितकाय, 162; नाटक.समयसार, संवरद्वार, 6, पृ.125.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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