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________________ 277 सूर की अन्योक्तियों में कहीं-कहीं रहस्यात्मक अनुभूति के दर्शन होते हैंचकई री चल चरन सरोवर, जहां न मिलन विछोह । एक अन्यत्र स्थान पर भी सूर ने सूरसागर की भूमिका में सपने इष्टदेव के साकार होते हुए उसका निराकार ब्रह्म जैसा वर्णन किया हैविगत गति कछु कहत न भावं । गूंगे मीठे फल को रस अन्तरगत ही भाव । परम स्वाद सवहीं सु निरन्तर प्रमित तोष उपजावे || मन वानी को अगम अगोचर जो जाने सो पावै । रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन द्यावे । सब विधि अगम विचारहि तातें सूर सगुन पद पावे ॥ सूर के गोपाल पूर्ण ब्रह्म है। मूल रूप में वे निर्गुण हैं पर सूर ने उन्हें सगुण के रूप में ही प्रस्तुत किया यद्यपि है सग ुण और निर्गुण, मिल जाता है । दोनों का प्रभास तुलसी भी सुगरणोपासक हैं पर सूर के समान उन्होंने भी निगा रूग की महत्व दिया है । उनको भी केशव का रूप प्रकथनीय लगता है— केशव ! कहि न जाइ का कहिये । देखत तव रचना विचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये || सून्य भीति पर चित्र, रंग नहि, तनु बिनु लिखा चितेरे । भोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइम एहि तनु हेरे ॥ रविकर-नीर बसे प्रति दारुन मकर रूप तेहि माहीं । बदन-हीन सो प्रसे चराबर, पान करन जे जाहीं ॥ कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ माने । तुलसिदास परिहरेतीत भ्रम, सौ प्रापन पहिचानं ॥ तुलसी जैसे सगुणोपासक भक्त भी अपने प्राराध्य को किसी निर्गुणोपासक रहस्यवादी साधक से कम रहस्यमय नहीं बतलाते । रामचरितमानस में उन्होंने लिखा है "आदि अंत को जासु न पावा । मति अनुमानि निगम जस गावा । बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना । कर बिमु करम करइ विधि नाना ।" इस प्रकार सगुणोपासक कवियों में मीरा को छोड़कर प्रायः ग्रन्थ कवियों में रहस्यात्मक तत्वों की उतनी गहरी अनुभूति नहीं दिखाई देती । इसका कारण 1. वही, स्कन्ध 1 पद 2. 2. विनयपत्रिका, 111 वां पद
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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