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________________ सुरत निरत का दिवला संजीले मनसा की कर ले बाती । प्रेम हटी का तेल मंगाले जग रहया दिन ते राती । सतगुरु मिलिया संसा भाग्या सेन वताई सांची ॥ ना घर तेरा ना घर मेरा गाव मीरा दासी ॥ 275 डॉ० प्रभात ने मीरा की रहम्य भावना के सन्दर्भ में डॉ० शर्मा और डॉ. द्विवेदी के कथनों का उल्लेख करते हुए अपना निष्कर्ष दिया है। निर्गुण भक्त बिना बाती, बिना तेल के दीप के प्रकाश में पारब्रह्म के जिस खेल की चर्चा करता है, यह मूलतः सगुण भक्तों की 'हरिलीला' से विशेष भिन्न नहीं है । डॉ. मुशीराम शर्मा ने वेद पुराण, तन्त्र और आधुनिक विज्ञान के आधार पर यही fron निकाला है कि 'हरिलीला आत्मशक्ति की विभिन्न क्रीड़ाम्रों का चित्रण है ।" राधा, कृष्ण, गोपी प्रादि सब प्रन्तः शक्तियों के प्रतीक हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अध्ययन का निश्व है कि 'रहस्यवादी वदिता वा केन्द्रविन्दु वह वस्तु है जिसे भक्ति साहित्य में 'लीला' कहते है । यद्यपि रहस्यवादी भक्तों की भांति पद-पद पर भगवान का नाम लेकर भवन नहीं है ही । ये भगवान अगम प्रगोवर तो है ही, वारणी और मन के भी अतीत हैं, फिर भी रहस्यवादी कवि उनको प्रतिदिन प्रतिक्षण देखता रहता है- संसार में जो कुछ घट रहा है प्रोर घटना सम्भव है, वह सब उस प्रेममय की लीला है- भगवान के साथ यह निरन्तर चलनेवाली प्रेम केलि ही रहस्यवादी कविता का केन्द्र बिन्दु है । " अतः मीरा की प्रेम-भावना में 'लीला' के इस निर्गुणत्व-निराकारत्व तक और कदाचित् उससे परे भी प्रसारित सरस रूप का स्फुटन होना श्रस्वाभाविक नहीं है । प्राध्यात्मिक सता में विश्वास करने वाले की दृष्टि से यह यथार्थ है, सत्य है । पश्चिम के विद्वानों के अनुकरण पर इसे 'मिस्टिसिज्म' या रहस्यवाद कहना अनुचित है । यह केवम रहस (प्रानन्दमयी लीला) है और मीरा की भक्ति भावना मे इसी 'रहस' का स्वर है । * 4 पूर और तुलसी, दोनों सगुणोपासक हैं पर प्रन्तर यह है कि सूर की भक्ति सख्यभाव की है और तुलसी की भक्ति दास्यभाव की है। इसी तरह मीरा की भक्ति भी सूर भौर तुलसी, दोनों से पृथक् है। मीरा ने कान्ताभाव को अपनाया है । इन सभी कवियों की अपेक्षा रहम्यभावना की जो व्यापकता और प्रनुभूतिपरका जायसी 1. मीरा पदावली, पृ. 20. 2. भारतीय साधना और सूरदास, पृ. 208. 3. साहित्य का साथी, पु. 64. मीरांबाई, पृ. 405, 4.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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