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________________ पोर न सुख की । वहां शून्य की जाति पौर समाधि की निद्रा नहीं है ।म तो उसे तौला जा सकता है और न छोड़ा जा सकता है। न वह हल्की है, न भारी । उसमें ऊपर नीचे की कोई भावना नहीं है । वहां रात और दिवस की स्थिति भी नहीं है । वहाँ न जल है, न पवन और न ही अग्नि । वहां सत्गुरु का साम्राज्य है । वह जगह इन्द्रियातीत है । उसको प्राप्ति गुरु की कृपा से ही हो सकती है सहज की माप कथा है जिरारी। तुलि नहीं बैठ जाइ न मुकाती हलकु लग न माटी । प्ररष करध दोऊ नाही राति दिनसु तह नाही । जलु नही पवनु-पवकु फुनि नाही सतिगुर तहा स साही । अगम अगोचर रहै निरन्तर गुर किरपा ते लहिये। कहु कबीर चलि जाऊ गुर अपुने संत संगति मिलि रहीये ।। सहज साधना की मोर वस्तुतः ध्यान सहजयान के प्राचार्यों ने दिया । सहजयान की स्थापना में बौद्ध धर्म का पाखण्डपूर्ण जीवन मूल कारण था । इसके प्रवर्तक सरहपाद माने जाते हैं जिन्होंने नैसर्गिक जीवन व्यतीत करने पर जोर दिया है। उसमे हठयोग का कोई स्थान नही। चित्त ही सभी कर्मों का बीज है उसी को सहज स्वभाव की स्थिति कहा गया है जिसमे चित्त और प्रचित्त दोनों का शमन हो जाता है । कण्हपा ने इसी को परम तत्त्व भी कहा है। इसमें प्रज्ञा और उपाय अद्वैत अवस्था मे मा जाते हैं। कौलमागियों में इन्ही तत्त्वों को शक्ति और शिव कहा जाता है । नाथों का यही परम तत्त्व, परम ज्ञान, परम स्वभाव और सहज समाधि रूप है। बौद्धों के सहजयान से प्रभावित होकर एक वैष्णव सहरिया सम्प्रदाय भी खड़ा हुमा जिसमें श्रीकृष्ण को परम तत्त्व और राधा को उनकी नैसगिक पालहादिनी शक्ति माना गया है। दोनो की रहस्यमयी केलि की सहजानुभूति कर इस सम्प्रदाय के साधक प्रेम-लीलामों का उपभोग करते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक पुरुष पोर स्त्री में एक प्राध्यात्मिक तत्त्व रहता है जिसे हम क्रमशः स्वरूप पोर रूप कहते हैं जो श्री कृष्ण और राषा के प्रतीक हैं । साधक को प्रात्म विस्मृतिपूर्वक इनको प्राप्त करना चाहिए । शुद्ध और सात्विक व्यक्ति को ही इसमें सहजिया मानुष कहा गया है। नाथ सम्प्रदाय का लक्ष्य विविध सिद्धियों को प्राप्त करना रहा है पर सहजिया सम्प्रदाय उसे मात्र चमत्कार प्रदर्शन मानकर यहित मानते हैं और सहमानंद के साथ उसका सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते। 1. संत कबीर, रामकुमार वर्मा, पृ. 51, पद 48; 'सैत ।माहित्य, पृ. 304-3 2. दोहाकोष, पृ. 46.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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