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________________ मा० रामचन्द्र शुक्ल के समय अपभ्रंश और विशेष रूप से हिन्दी जैन साहित्य का प्रकाशन नहीं हुआ था। जो कुछ भी हिन्दी जैन ग्रंथ उपलब्ध थे उन्हीं के आधार पर उन्होंने समूचे हिन्दी जन साहित्य को अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में नितान्त धार्मिक, साम्प्रदायिक मौर शुष्क ठहरा दिया। उन्हीं का अनुकरण करते हुए प्राचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है "जो हिन्दी के पाठकों को यह समझाते फिरते हैं कि उसकी भूमिका जनों और बौद्धों की साम्प्रदायिक सर्जना में है वे स्वयं भ्रम में हैं और उन्हें भी इस इहलाम से भ्रमित करना चाहते हैं। हिन्दी के शुद्ध साहित्य की भूमिका संस्कृत और प्राकृत की सर्जना में तो दी जा सकती है, पर अपभ्रंश की साम्प्रदायिक अर्चना में नहीं। अपभ्रश के नसर्गिक साहित्य-प्रवाह से भी उसका संबंध जोड़ा जा सकता है, पर जैनों के साम्प्रदायिक संवाह से नहीं।" परन्तु प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस सिद्धान्त से सहमत नहीं। उनके अनुसार " धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरितमानस भी साहित्य क्षेत्र में अविवेच्य हो जायेगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा।" डा. भोलाशंकर व्यास ने भी इसका समर्थन करते हुए लिखा कि धार्मिक प्रेरणा या प्राध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नहीं समझा जाना चाहिए । लगभग दसवीं शती के पूर्व की भाषा में अपभ्रंश के तत्व अधिक मिलते हैं । यह स्वाभाविक भी है। इसे चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने पुरानी हिन्दी कहा है। राहुल सांकृत्यायन ने भी अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी माना है और हिन्दी काव्य धारा में लिखा है--"जनों ने अपभ्रंश साहित्य की रचना और उसकी सुरक्षा में सबसे अधिक काम किया। वह ब्राह्मणों की तरह संस्कृत के अध भक्त भी नहीं थे । प्रतएव जैनों ने देश भाषा में कथा साहित्य की सृष्टि की, जिसके कारण स्वयंभू और पुष्पदन्त जैसे अनमोल अद्वितीय कविरत्न हमें मिले । “स्वयंभू हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पांचों युगों 1. सिद्ध सामन्त युग, 2. सूफी युग, 3. भक्ति युग, 4. दरबारी युग, 5. नवजागरण युग, के जितने कवियों को हमने यहां संग्रहीत 1. हिन्दी साहित्य का प्रतीत, भाग 2, अनुवचन, पृष्ठ 5, 2. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना, पृ. 11. 3. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्र. भा., काशी पृ. 347. 4. "कविता की प्रायः भाषा सब जगह एक सी ही थी। जैसे नानक से लेकर दक्षिण के हरिदासों तक की कविता की बजभाषा थी, वैसे ही अपभ्रंश को भी "पुरानी हिन्दी कहना अनुचित्त नहीं, चाहे कवि के देश-काल के अनुसार उसमे कुछ रचना प्रादेशिक हो।" ।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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