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________________ 235 धानतराय कवीर के समान उन्हें कृतकृत्य मानते हैं जिन्हें सत्संगति प्राप्त हो गयी है। भूपरमल सत्संगति को दुर्लभ मानकर नरभव को सफल बनामा चाहते हैं प्रमु गुन गाय रे, यह प्रोसर फेर न पाय रे ॥ मानुष भव जोग दुहेला. दुर्लभ सतसगति मेला । सब बात भली बन पाई, अरहन्त भजो रे भाई ॥1॥ दरिया ने सत्सगति को मजीठ के समान बताया और नवल राम ने उसे चन्द्रकान्तमरिण जैसा बताया है । कवि ने और भी दृष्टान्त देकर सत्संगति को सुखदायी सत संगति जग में सुखदायी ॥ देव रहित दूषण गुरु साची, धर्म दया निश्च चितलाई ॥ सुक मेना संगतिनर की करि, अति परवीन वच नता पाई । चन्द्र कांति मनि प्रकट उपल सौ, जल ससि देखि झरत सरसाई ।। लट घट पलटि होत षट पद सी, मिन को साथ भ्रमर को थाई। विकसत कमल निरखि दिनकर कों, लोह कनक होय पारस छाई ।। बोझ तिरं संजोग नाव कं, नाग दमनि लखि नाग न खोई। पावक तेज प्रचंड महाबल, जल मरता सीतल हो जाई॥ सग प्रताप मुयंगम जै है, चंदन शीतल तरल पटाई। इत्यादिक ये बात धणेरी, कोलो ताहिं कही नु बढ़ाई॥ 1. कर कर सपत संगत रे भाई॥ पान परत नर नरपत कर सौ तौ पाननि सौ कर प्रासनाह॥ चन्दन पास नींव चन्दन है काढ चढ़यो लोह तरजाई । पारस परस कुषात कनक है बून्द उर्द्ध पदवी पाई ।। करई तोवर संगति के फल मधुर मधुर सुर कर गाई। विष गुन करत संग प्रोषध के ज्यो बच खात मिट वाई ।। दोष घटे प्रगटे गुन मनसा निरमल है तज चपलाई । चानत धन्न धन्न जिनके घट सत संगति सरधाई॥ हिन्दी पद संग्रह, पु. 137. 2. वही, पृ. 155. 3. वही, पृ. 158-86.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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