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________________ 228 जैनधर्म के अनुसार क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और ज्ञान विहीन क्रिया भी नगर से भाग लगने पर पंगु तो देखता देखता जल गया और श्रधा दौड़ता-दौड़ता । पीताम्बर ने इसीलिए कहा है---भेषधार कहैं भैया भेष ही में भगवान, भेष मे भगवान, भगवान न भाव में । '3 इस सन्दर्भ मे प्रस्तुत प्रबन्ध के चतुर्थं परिवर्त में बाह्याडम्बर के प्रकरण में संकलित और भी अनेक पद देखे जा सकते हैं जिसमे बाह्याचार की कटु आलोचना की गई है । जैन साधकों एवं कवियों के साहित्य का विस्तृत परिचय न होने के कारण कुछ आलोचकों ने मात्र कबीर साहित्य को देखकर उनमे ही बाह्याडम्बर के खडन की प्रवृत्ति को स्वीकारा है जबकि उनके ही समान बाह्याचार का खंडन प्रो प्रालोचना जैन साधक बहुत पहले कर चुके थे अतः इस सन्दर्भ में कबीर के बारे में ही मिथ्या श्रारोप लगाना उपयुक्त नहीं । S देह के पवित्र किये श्रात्मा पवित्र होय, ऐसे मूड भूल रहे मिथ्या के भरम में । कुल के प्राचार को विचारं सोई जानं धर्म, कंद मूल खाये पुण्य पाप के करम मे । मूंड के मुंडाये गति देह के दगाये गति, रातन के खाये गति मानत परम में । शस्त्र के घरैया देव शास्त्र को न जाने भेद, ऐसे हैं अबेन श्ररु मानत परम में । उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि जैन और जीनतर दोनो साधक कवियो बाह्याचार की अपेक्षा ग्रान्तरिक शुद्धि पर अधिक बल दिया है । अन्तर इतना 1. 2. 3. 4. 5. ब्रह्मविलास, सुपंथ कुपंथपचीतिक, 11 पृ. 182. हयं नारण क्रियाहीणं हया अन्नागणश्री त्रिया । पासंती पंगुली दड्ढो धावमारगो य धमो । विशेषावश्यक भाष्य, जिन भद्ररण, 1159. बनारसीविलास, ज्ञानवावनी, 43, पृ. 87. क्या है तेरे न्हाई धोई, प्रातमराम न चीन्हा सोई । क्या घट परि मंजन की भीतरी मैल अपारा ॥ रामनाम बिन नरक न छूटै, जो धोवै सौ बारा । ज्यू दादुर सुरसरि जल भीतरि हरि बिन मुकति न होई || कबीर, पृ. 322. श्रभिन्तर चित्ति वि महलियइ बाहिरि काइ तबेण । चित्ति गिरंजणु को वि घरि मुच्चहि जेम मलेरण || पाहुण दोहा, 61 पृ. 18 भितरि भरिउ पाउमलु मूढा करहि सव्हाणु । जे मल लाग चित्त महि भन्दा रे ! बिम जाय सम्हाणि ॥ प्रादा, 4.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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