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________________ 207 aterरामजी का मन भी ऐसी ही होली खेलता है। उन्होंने मन के मृदंग सजाकर, तन को तंबूरा बनाकर, सुमति की सारंगी बजाकर, सम्यक्त्व का नीर भरकर करुणा की केशर धोलकर ज्ञान की पिचकारी से पंचेन्द्रिय- सखियों के साथ होली खेली। माहारादिक चतुर्दान की गुलाल लगाई, तप के मेवा को अपनी झोली में रखकर यश की अबीर उड़ाई और अंत में भव-भव के दुःखों को दूर करने के लिए 'फागुमा शिव होरी' के मिलन की कामना करते हैं । कवि ने इसी प्रसंग में बड़े ही सुन्दर ढंग से यह बताने का प्रयत्न किया है कि सम्यग्ज्ञानी जीव कर्मों की होली किस प्रकार खेलता है 1. ज्ञानी ऐसी होली मचाई || राग कियो विपरीत विपन घर, कुमति कुसौति सुहाई । धार दिगम्बर कीन्ह सु संवर निज परभेद लखाई । घात विषदिनकी बचाई || ज्ञानी ऐसी ॥11॥ कुमति सखा भजि ध्यानभेद सम, तन में तान उडाई । कुम्भक ताल मृदंगसी पूरक रेचकवीन बजाई । लगन अनुभव सौं लगाई || ज्ञानी ऐसी 1121 कर्म बतीता रसानाम घरि वेद सुइन्द्रि गनाई । दे तप अग्नि भस्म करि तिनको, धूल प्रधाति उड़ाई । करी शिवतिय की तिताई || ज्ञानी ॥3॥ मेरो मन ऐसी खेलत होरी ॥ मन मिरदंग साजकरि त्यागी, तन को तमूरा बनोरी । सुमति सुरंग सारंगी बजाई, ताल दोउ करजोरी | राग पांचों पद कोरी, मेरो मन ॥1॥ समकिति रूप नीर भर भारी, करुना केशर घोरी । ज्ञानमई लेकर पिचकारी, दोउ करमाहि सम्होरी । इन्द्र पांचों सखि बोरी, मेरे मन. ॥2॥ चतुरदान को है गुल्लाल सो, भरि भरि सुठि चलोरी । तप मेवाकी भरि निज कोरी, यश की अबीर उड़ोरी । रंग जिनधाम मचोरी, मेरे मन. ॥13॥ दौलत बाल खेलें इस होरी, भवभव दुःख टलोरी । शरना ले इक वजन को री, जग में लाज हो तोरी । मिले फगुमा शिव होरी। मेरे मन. ॥4॥ दौलत जैन पद संग्रह . 26.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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