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________________ पंचम परिवर्स में सम्मभावना के बाधक तत्वों की स्पष्ट किया गया है । रहस्यसाधना का चरमोत्कर्ष ब्रह्मसाक्षात्कार है । साहित्य में इसको प्रात्म-साक्षात्कार परमात्मपद, परम सत्य, अजर-अमर पद, परमार्थ प्राप्ति मादि नामों से उल्लिखित किया गया है। अतः हमने इस अध्याय में प्रात्म चिन्तन को रहस्यभावना का केन्द्र बिन्दु माना है । पात्मा ही साधना के माध्यम से स्वानुभूति पूर्वक अपने मूल रूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए साधक को एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है। हमने यहाँ रहस्यभावना के मार्ग के बाधक तत्वों को जैन सिद्धांतों के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है। उनमें सांसारिक विषय-वासना शरीर से ममत्व, कर्माल, माया-मोह, मिथ्यात्व, बाबाडम्बर और मन की चंचलता पर विचार किया है। इन कारणों से साधक बहिरात्म अवस्था में ही पड़ा रहता है। षष्ठ परिवर्त रहस्यभावना के सापक तत्वों का विश्लेषण करता है। इस परिवर्त में सद्गुरु की प्रेरणा, नरभव दुर्लभता, पात्म- संबोधन, प्रात्मचिन्तन, चित्त शुद्धि, भेदविज्ञान और रत्नत्रय जैसे रहस्यभावना के साधक तत्वों पर मध्यकालीन हिन्दी जैन काम्य के प्राधार पर विचार किया गया है । यहां तक पाते-पाते साधक अन्तरारमा की अवस्था को प्राप्त कर लेता है। ___सप्तम परिवतं रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों को प्रस्तुत करता है । इस परिवर्त में अन्तरामावस्था प्राप्त करने के बाद तथा परमात्मावस्था प्राप्त करने के पूर्व उत्पन्न होने वाले स्वाभाविक भावों की अभिव्यक्ति को ही रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का नाम दिया गया है। मात्मा की तृतीयावस्था प्राप्त करने के लिए साधक दो प्रकार के मार्गों का अवलम्बन लेता है-साधनात्मक और भावनात्मक । इन प्रकारों के अन्तर्गत हममे क्रमशः सहज साधना, योग साधना, समरसता प्रपत्ति-भक्ति, माध्यात्मिक प्रेम, माध्यात्मिक होली, अनिर्वचनीयता प्रादि से सम्बद्ध भायों और विचारों को चित्रित किया है। प्रष्टम परिवर्त में मध्यकालीन हिन्दी जैन एवं जनेतर रहस्यवादी कवियों का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। इस सन्दर्भ में मध्यकालीन सगुण. निर्गुण और सूफी रहस्यबाद की जैन रहस्यभावनाके साथ तुलना भी की गई है। इस सन्दर्भ में स्वानुभूति, प्रात्मा और ब्रह्म, सद्गुरु, माया, प्रात्मा ब्रह्म का सम्बन्ध, विरहा नुभूति, योग साधना, भक्ति, प्रनिर्वचनीयता प्रादि विषयों पर सांगोपांग रूप से विचार किया गया है। प्रस्तुत प्रबन्ध में मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि को हमने बहुत संक्षेप में ही उपस्थित किया है और काल विभाजन के विवाद एवं नामकरण में भी हम नहीं उलझे । विस्तार और पुनरुक्ति के भय से हमने मावि कालीन और मध्य
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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