SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 18 'प्रब हम भमर भये न मरेंगे।" शुद्धामावस्था की प्राप्ति में समरसता भोर तज्जन्य अनुभूति का मानंद जैनेतर कवियों की तरह न कवियों ने भी लिया है। उसकी प्राप्ति में सर्वप्रथम द्विविधा का अन्त होना चाहिए जिसे बनारसीदास और मंया भगवतीदास ने दूर करने की बात कही है । प्रानन्दतिलक की आत्मा समरस में रंग गई.-- समरस भावे रंगिया अप्पा देखई सोई, अप्पउ जाणइ परगई पाणंद करई रिणराव होई। यशोविजय ने भी उनका साथ दिया । बनारसीदास को वह कामधेन चित्रावेलि और पंचामृत भोजन जैसा लगा। उन्होंने ऐसी ही पात्मा को समरसी कहा है जो नय-पक्षों को छोड़कर समतारस ग्रहण करके प्रात्म स्वरूप की एकता को नहीं छोड़ते और अनुभव के अभ्यास से पूर्ण प्रानंद में लीन हो जाते हैं। ये समरसी सांसारिक पदार्थों की चाह से मुक्त रहते हैं-'जे समरसी सदैव तिनकों कछ न चाहिए। ऐसा समरसी ब्रह्म ही परम महारस का स्वाद चख पाता है। उसमें ब्रह्म, जाति, वर्ण, लिंग, रूप प्रादि का भेद अब नहीं रहता।। भूधरदासजी को सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद कैसी प्रात्मानुभूति हुई और कैसा समरस रूपी जल झरने लगा, यह उल्लेखनीय है अब मेरे समकित सावन आयो ।। बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम, पावस सहज सुहायो । अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा धन छायो । बोल विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन भाषो ।। भूल धूलकहि मूल न सूझत, समरस जल झर लायो। भूषर को निकस प्रब बाहिर, निज निरखू घर पायो ।" पाणंदा, पामेरशास्त्र भंडार जयपुर की हस्तलिखित प्रति. हि. जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 202, जलविलास. नाटक समयसार, उत्थानिका, 19. नाटक-समपसार, कर्ताकर्म क्रिया द्वार, 27, पृ. 86. ऐसी नयकक्ष ताको पक्ष तजि. ग्यानी जीव' समरसी भए एकता सों नहि टने हैं। महामोह नासि सुद्ध-अनुभौ अभ्यासि निज, बल परगति सुखरासि मांहि टले हैं। 5. साध्य-साधक द्वार, 10, पृ 340. 6. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 147.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy