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________________ 181 पांडे रूपचन्द की काव्य सौष्ठव देखिये जिसमें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव का समुचित प्रयोग हुमा है प्रभु तेरी परम विचित्र मनोहर, मुरति रूप बनी। मंग-मंग की अनुपम सोभा, बरनि न सकति फनी ।। सकल बिकार रहित बिनु अम्बर, सुन्दर सुभ करनी। निराभरन भासुर छबि सोहत, कोटि तरुन तरनी॥ वसु रस रहित सांत रस राजत, खलि इहि साधुपनी । जाति विरोधि जन्तु जिहि देखत, तजत प्रकृति अपनी।। दरिसनु दुरित हरै चिर संचितु, सुरनरफनि मुहनी। रूपचन्द कह कहौ महिमा, त्रिभुवन मुकुट-मनी ॥1 कविवर बनारसीदास ने नाटक समयसार में पंचपमेष्ठियों की जो स्तुतियां की हैं उनमें तीर्थकर के शरीर की स्तुति यहा उल्लेखनीय है । जगतराम ने भी इसी प्रकार पाराध्य की छवि देखकर शाश्वत सुख की प्राप्ति की प्राशा की है। नवलराम के नेत्रों में उसकी छाया सुखद प्रतीत होती है-'म्हारा तो नैना में रही छाय, हो जी हो जिनन्द थांकी भूरति ।" दौलतराम को भी ऐसा ही सुखद अनुभव होता है और साथ ही उनके मोह महातम का नाश हुमा है-'निरखत सुख पायो जिन मुख चन्द मोह महातम नाश भयो है, उर अम्बुज प्रफुलायो। ताप नस्यौ बढि उदधि अनन्द । बुधजन भी 'छवि जिनराई राजे छै' कहकर भगवान की स्तुति करते हैं। 1. रूपचन्द शतक (परमार्थी दोहाशतक, जैन हितेषी, भाग 6, अक 5-6. 2. जाके देह-द्युति सौ दशो दिशा पवित्र भई-ना. स., जीवद्वार, 25. 3. अद्भुत रूप अनूपम महिमा तीन लोक में छाजे। जाकी छवि देखत इन्द्रादिक चन्द्र सूर्य गण लाजै ॥ परि अनुराग विलोकत जाकों अशुभ करम तजि भागे । जो जगराम बने सुमरन तो अनहद बाजा बाज ।। दि. जैन मन्दिर, बड़ौत में सुरक्षित पद संग्रह, हिन्दी जन भक्ति काव्य मोर कवि, पृ. 257. 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 184. 5. दौलत जैन पद संग्रह, 43 वां पद, पृ. 25. बुधजन विलास, 57 वां पद, पृ. 30.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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