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________________ 170 घरं दसा जैसी तब करें रीति तैसी ऐसी, हिरवे हमारे भगवंत की भगति है ।" जैन साधना के क्षेत्र में दस प्रकार की भक्तियाँ प्रसिद्ध हैं-सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, चरित्र भक्ति, योगि भक्ति, प्राचार्य भक्ति, पंचमहागुरु भक्ति, वैत्य भक्ति, वीर भक्ति, चतुविशति तीर्थंकर भक्ति और समाधि भक्ति । इनके प्रतिरिक्त निर्वारण भक्ति, नंदीश्वर भक्ति और शांति भक्ति को भी इसमें सम्मिलित किया गया है । भक्ति के दो रूप हैं - निश्चय नय से की गई भक्ति और व्यवहार नय से की गई भक्ति । निश्चय नय से की गई भक्ति का सम्बन्ध वीतराग सम्यग्दृष्टियों के शुद्ध प्रात्म तत्त्व की भावना से है और व्यवहार नय से की गई भक्ति का सम्बन्ध सराग सम्यग्दृष्टियों के पंच परमेष्ठियों की आराधना से है । व्यवहार में उपास्य को कर्म, दुःख मोचक आदि बनाकर भक्ति की जाती है पर वह अन्तरंग भावों के सापेक्ष होने पर ही सार्थक मानी गई है अन्यथा तहीं । नवधा भक्ति प्रादि के माध्यम से साधक निश्चय भक्ति की मोर प्रसारित होता है। इसी को प्रपत्ति मार्ग कहा जाता है । उपर्युक्त प्रपत्ति मार्ग के प्रमुख तत्वो के प्राधार पर हम यहाँ मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों द्वारा अभिव्यक्त रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का संक्षिप्त प्रव लोकन करेंगे । बनारसीदास ने नवधा भक्ति में सर्वप्रथम श्रवरण को स्थान दिया है। श्रवण का तात्पर्य है अपने प्राराध्य देव के उपदेशों का सम्यक् श्रवरण करना श्रीर तदनुकूल सम्यक्ज्ञान पूर्वक आचरण करना । भक्त के मन में भाराध्य के प्रति श्रद्धा और प्रेम भावना का अतिरेक होता है । श्रतः मात्र उसी के सुनकर अपने जीवन को कृतार्थ माना है । वह अपने अंगो की सार्थकता को तभी स्वीकार करता है जबकि वे प्राराध्य की ओर झुके रहें । मनराम ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है उपदेश आदि को चरन सफल मनराम वहे गनि, जे परमारथ के पथ धावहि ॥ इसी को ध्यानतराय ने 'रे जिय जनम लहो लेह' कहकर चरण, जिहवा, श्रोत्र श्रादि की सार्थकता तभी मानी है जब वे सद्गुरु की विविध उपासना में जुटे रहें । 2 1. 2. न सफल निरषँ जु निरजन, सीस सफल नमि ईसर भावहि । श्रवन सफल विहि सुनत सिद्धांतहि मुषज सफल जपिय जिन नांवहि । हिर्दो सफल जिहि धर्मवसे ध्रुव, करज सुफल पुन्यहि प्रभु पावहि । 3. नाटक समयसार, उत्थानिक, पृ. 11-12. मनराम विलास, 90, ठोंलियों का वि जैन मन्दिर, जयपुर, वेष्टन नं. 305. खानत पद संग्रह, 9, पू. 4, कलकत्ता,
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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