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________________ 168 को ही रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का नाम दिया गया है । इन प्रवृत्तियों में मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने प्रपत्ति (भक्ति) सहज योग साधना और समरसता तथा रहस्य भावना का विशेष रूप से उपयोग किया है। हम भागे इन्हीं तत्त्वों का विवेचन करेंगे। 1. प्रपत्त मावना : रहस्य साधना में साधक परमात्मपद पाने के लिए अनेक प्रकार के मार्ग अपनाता है। जब योग साधना का मार्ग साधक को अधिक दुर्गम प्रतीत होता है तो वह प्रपत्ति का सहारा लेता है। रहस्य साधकों के लिए यह मार्ग अधिक सुगम है । इसलिए सर्वप्रथम वह इसी मार्ग का अवलम्बन लेकर क्रमशः रहस्य भावना की चरम सीमा पर पहुंचता है । रहस्य भावना किंवा रहस्यवाद की भूमिका चार प्रमुख तत्त्वों से निर्मित होती है-आस्तिकता, प्रेम और भावना, गुरु की प्रधानता और सहज मार्ग । जैन साधको की प्रास्तिकता पर सन्देह की अावश्यकता नहीं । उन्होंने तीर्थकरों के सगुण और निर्गुण, दोनो रूपो के प्रति अपनी अनन्य भक्ति-भावना प्रदशित की है। उनकी भगवद प्रेम भावना उन्हे प्रपन्न भक्त बनाकर प्रपत्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है। 'प्रपत्ति' का तात्पर्य है-अनन्य शरणागत होने अथवा प्रात्मसमर्पण करने की भावना । भगवद् गीता मे "शिष्यस्तेहं शाधि मां त्वं प्रपन्नम्" कहकर इसे और अधिक स्पष्ट कर दिया है। नवधा भक्ति का भी मूल उत्स प्रपत्ति है। प्रतः हमने यहा 'प्रपत्ति' शब्द को विशेष रूप से चुना है। भागवत्पुराण की नवधा भक्ति के 9 लक्षण माने गये है-श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन (शरण) अर्चना, वन्दना दास्यभाव, सख्यभाव और प्रात्म निवेदन । कविवर बनारसीदास ने इसमें कुछ अंतर किया है। ये तत्त्व हीनाधिक रूप से सगुण और निर्गुण, दोनों प्रकार की भक्ति साधनामो मे उपलब्ध होते है । भक्ति के साधनों मे कृपा, रागात्मक सम्बन्ध, वैराग्य ज्ञान और सत्संग प्रमुख है। प्रपत्ति मे इन साधनो का उपयोग होता है। पांचरात्र लक्ष्मी सहिता मे प्रपत्ति की षड्विधाये दी गई हैं-प्रानुकूल्य का संकल्प, प्रातिकूल्य का विसर्जन, सरक्षण, एतद्रूप विश्वास गोप्तृत्व रूप मे वरण, प्रात्मनिक्षेप और 1. भगवद्गीता, 27.4. 2. श्रवण कीर्तन विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सत्यमात्मनिवेदनम् ॥ 3. श्रवन कीरतन चितवन सेवन बन्दन ध्यान । लघुता समता एकता नोधा भक्ति प्रवान ॥ नाटक समयसार, मोक्षद्वार, 8, पृ. 217.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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