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________________ 153 चुम्बक लोहे को भाषित करता है उसी प्रकार कर्म चेतन को अपनी ओर खींचता है। चेतन शरीर में उसी प्रकार रहता है जिस प्रकार फल-फूल में सुगन्ध, दूध में दही और घी, तथा काठ में अग्नि रहा करती है। सहज शुद्ध चेतन भाव कर्म की मोट में रहता है और द्रव्य कर्म रूप शरीर से बंधा रहता है। बनारसीदास ने एक उदाहरण देकर उसे स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। कोठी में धान रखी है, पान के छिलके के अन्दर धान्य करण रखा है। यदि छिलके को धोया जाय तो करण प्राप्त हो जायेगा और यदि कोठी (मिट्टी की) को धोया जाय तो कीचड़ बन जायेगी। यहाँ कोठी के रूप में नोकर्म मख हैं. द्रव्य कर्म में धान्य है, भावकर्ममल के रूप में छिलका (चमी) हैं और कण के रूप में प्रष्ट कर्मों से मुक्त भगवान हैं। इस प्रकार कर्म रूप पुद्गल को दो भेद है-भाव कर्म और द्रव्य कर्म । भाव कर्म की गति ज्ञानादिक होती हैं और द्रव्य कर्म नोकर्म रूप शरीर को धारण करता है। एक ज्ञान का परिणमन हैं और दूसरा कर्म का घेर है । ज्ञानचक्र अन्तर में रहता है पर कर्मचक्र प्रत्यक्ष दिखाई देता है। चेतन के ये दोनों भाव क्रमशः शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के रूप है । निज गुण-पर्याय में ज्ञानचक्र की भूमिका रहती है और पर पदार्थों के गुणपर्याय में कर्मचक्र कारण रहता है । ज्ञानी सजग सम्यग् दर्शन युक्त कर्मों की निर्जरा करने वाला तथा देव-धर्म गुरु का अनुसरण करने वाला होता है पर कर्मचक्र में रहने वाला घनघोर निद्रालु, मन्धा तथा कर्मों का बन्ध करने वाला देव-धर्म गुरु की ओर से विमुख होता है । कर्मवान् जीव मोही मिथ्यात्वी, भेषधारिकों को गुरु मानने वाला, पुण्यवान् को देव कहने वाला तथा कुल परम्परामों को धर्म बताने वाला होता है, पर ज्ञानी जीव वीतरागी निरंजन को देव, उनके वचनों को धर्म और साधु पुरुष को गुरु कहता है । कर्मबन्ध से भ्रम बढ़ता है और भ्रम से किसी भी वस्तु का स्पष्टत: भान नहीं हो पाता । मोह का उपशम होते ही विभाव परणितियां समाप्त होती जाती हैं तथा सुमति का उदय होता है । उसी से सम्यक् दर्शक-ज्ञान-चारित्र का प्रकाश माता है । शिव की प्राप्ति के लिए सुमति की प्राप्ति ही मुख्य उपाय है। 1. हिन्दी पद संग्रह, भट्टारक रत्नकीर्ति, पृ. 3. 2. ज्यों कोठी में धान थो. चमी मांहि कनबीच । चमी धोय कम राखिये, कोठी धोए कीच ॥11॥ कोठी सम नोकर्म मल, द्रव्य कर्म ज्यों धान । भावकर्ममल ज्यों, चमी, कन समान भगवान ।।12। बनारसी विलास, प्रध्यातम बत्तीसी 11-12, पृ. 144. 3. वही, अध्यातम बत्तीसी, 13-32.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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