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________________ नरभव पाप फेरि दु:खाना देता काम न करना हो। नाहक ममत ठानि पुद्गलसों, करम जालक्यों परना हो । नरमव०॥1॥ यह तो ना तू मल्पी, तिल तुष की बुरुवरना हो। राम-कोष तजि भज समता को कर्म साया कोहरना हो4120 वों व पाय विषय सुख सेहा, मज चलियन डोमा हो। 'बुक्जन' समुकि सेम जिनवर पद, ज्यों भक्तामर तरना हो । कविवर विषयासक्त व्यक्ति की प्राहट को पहचानते हैं। इसलिए वे कहते हैं कि तुमने अभी तक बहुत विचार किया है अपना । यह नरभव मुक्ति-महल की सीडी है, संसार-सागर से पार कराने वाला तट है फिर क्यो इसे व्यर्थ खो रहा है "अरे हो से तो सुधरी बहुत बिमारी । ये मति मुक्ति महल की पोरी पाय रहत क्यों पिछारी।" (बुधवन विलास, पद 26) मूबरदास सचेत होकर नरभव की सफलता की बात करते हैं परे हो चेतो रे भाई। मानुष देह लही दुलही, सुपरी उधरी भवसंगति पाई। जे करनी वरनी करनी नहिं, समझी करनी समझाई। यों शुभ थान जग्यो उर ज्ञान, विर्ष विषपान तृषा न बुझाई । पारस पाव सुधारस भूधर, भीख के मांहि सुलाज न आई। (भूघर विलास, पद 46) बिहारीदास को नरभव व्यर्थ करना समुद्र में राई फेक कर पुनः प्राप्त करना जैसा लमा-"मातम कठिस उपाय पाय नरभव क्यों तजै राई उदधि समानी फिर टूट नही पाइये।" नरभव दुर्लभता के चिन्तन के साथ ही साधक का मन संसार पौर शरीर की नश्वरता पर भी टिक जाता है। उसका मन तथाकथित सांसारिक सुखों की भोर से हटकर स्थायी सुख की प्राप्ति में लग जाता है। अब यह समझने लगता है कि सांसारिक सुख वस्तुतः वास्तविक सुख नहीं बल्कि सुबाआम है। नरभव दुर्लभता का चिन्तन इस चिन्तन को गौर माये बढ़ा देता है। 1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 181-192. 2. सम्बोपचासिक, 3 दिगम्बर जैन मन्दिर बडोत की हस्तलिखित प्रति, 3. प्रस्तुत विषय पर 'रहस्य भावना के बाषक तत्त्व" नामक अध्याय में विस्तार से मध्यकालीन कवियों के विचार प्रस्तुत किये जा चुके हैं।
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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