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________________ 13 2. नरभव दुर्लभता प्रायः सभी दार्शनिकों ने नरभव की दुर्लभता को स्वीकार किया है। यह सम्भवतः इसलिए भी होगा कि ज्ञान की जितनी अधिक गहराई तक मनुष्य पहुंच सकता है उतनी गहराई तक अन्य कोई नहीं। साथ ही यह भी स्थायी तथ्य है कि जितना अधिक प्रज्ञान मनुष्य में हो सकता है उतना और दूसरे में नहीं । ज्ञान और अज्ञान दोनों की प्रकर्षता यहाँ देखी जा सकती हैं । इसलिए प्राचार्यों ने मानव की शक्ति का उपयोग उसके प्रज्ञान को दूर करने में लगाने के लिए प्रेरित किया है। एतदर्थ सर्वप्रथम यह मावश्यक है कि साधक के मन में नरभव की दुर्लभता समझ में मा जाय । महात्मा बुद्ध ने भी अनेक बार अपने शिष्यों को इसी तरह का उपदेश दिया था। मन की चंचलता से दुःखित होकर रूपचन्द कह उठते हैं-"मन मानहि किन समझायो रे।" यह नरभव-रत्न अथक प्रयत्न करने पर सत्कमों के कारण प्राप्त हो सका है। पर उसे हम विषय-वासनादि विकार-भाव रूप काचमरिण से बदल रहे हैं। जैसे कोई व्यक्ति धनार्जन की लालसा से विदेश यात्रा करे और चिन्तामणि रत्न हाथ माने पर लौटते समय उसे पाषाण समझ कर समुद्र में फेंक दे। उसी प्रकार कोई भवसागर में भ्रमण करते हुए सत्कर्मों के प्रभाव से नरजन्म मिल जाता है पर यदि प्रज्ञानवश उसे व्यर्थ गवा देता है तो उससे पधिक मूढ और कौन हो सकता है ? सोमप्रभाचार्य के शब्दों को बनारसीदास ने पुनः कहा कि जिस प्रकार प्रज्ञानी व्यक्ति सजे हुए मतंगज से ईधन ढोये, कंचन पात्रों को धूल से भरे, प्रमात रस से पैर धोये, काक को उड़ाने के लिए महामरिण को फेंक दे और फिर रोजी प्रकार इस नरभव को पाकर यदि निरर्थक गंवा दिया तो बाद में पश्चात्ताप के प्रति. रिक्त और कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। ज्यों मतिहीन विवेक बिना नर, साजि मतगंज ईधन ढोवै । कंचन भाजन धूल भर शत्, मूढ सुधारस सौं पग धोवे ।। बाहित काग उड़ावन कारण, डार महामणि मूरख रोवे । स्यों यह दुर्लभ देह 'बनारसि' पाय प्रजान प्रकारथ खो । 1. थेरीगाथा, 4,459 आदि, 2. नरभवरतन जनत बहुतनि तें, करम-करम करि पायो रे। विषय विकार काचमरिण बदले, सु प्रहले जान गवायो रे ॥ हिन्दी पद संग्रह, पृ. 34. बनारसीविलास, भाषा सूक्तमुक्तावली, 5 पृ. 19. 4. वही, भाषा सूक्त मुक्तावली, पृ. 19.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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