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________________ हम इस काल को सामान्यतः जैन धर्म के प्राविर्भाव से लेकर प्रथम शती तक निश्चित कर सकते हैं। जैन परम्परा के अनुसार तीर्थकर मादिनाप ने हमें सापना पति का स्वरूप दिया । उसी के आधार पर उत्तर कालीन तीर्थकर और भाचार्यों मे अपनी साधना की । इस सन्दर्भ में हमारे सामने दो प्रकार की रहस्य-साधनाएं साहित्य में उपलब्ध होती हैं -1. पार्श्वनाथ परम्परा की रहस्य साधना, पौर 2. निर्गठ मातपुत्त परम्परा की रहस्य साधना । भगवान पार्श्वनाथ जैन परम्परा के 23 वे तीर्थकर कहे जाते हैं। उनसे भगवान महावीर, जिन्हें पालि साहित्य में निगण्ठनातपुत्त के नाम से स्मरण किया गया है, लगभग 250 वर्ष पूर्व प्रवतरित हुए थे। त्रिपिटक में उनके साधनात्मक रहस्यवाद को चातुर्याम संवर के नाम से अभिहित किया गया है । ये चार संवर इस प्रकार पहिसा, सत्य, प्रचौर्य पौर अपरिग्रह हैं उत्तराध्ययन भादि ग्रन्थों में भी इनका विवरण मिलता है । पार्श्वनाथ के इन व्रतों में से चतुर्थ व्रत में ब्रह्मचर्य व्रत अन्तर्भूत था। पाश्र्वनाथ के परिनिर्वाण के बाद इन व्रतों के प्राचरण में शैथिल्य पाया और फलतः समाज ब्रह्मचर्य व्रत से पतित होने लगा । पार्श्वनाथ की इस परम्परा को जैन परम्परा में 'पार्श्वस्थ' अथवा 'पासत्य' कहा गया है । निगण्ठनाथपुत्त अथवा महावीर के माने पर इस प्राचारशैथिल्य को परखा गया । उसे दूर करने के लिए महावीर ने अपरिग्रह का विभाजन कर निम्नांकित पंच व्रतों को स्वीकार किया-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । महावीर के इन पंचवतों का उल्लेख जैन मागम साहित्य मे तो प्राता ही है पर उनकी साधना के जो उल्लेख पालि साहित्य मे मिलते हैं । वे ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। इस संवर्म में यह उल्लेखनीय है कि श्री पं. पदमचंद शास्त्री ने भागमों के ही माधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि पार्श्वनाथ के पंच महाव्रत थे, चातुर्याम नहीं (भनेकान्त, जून 1977) । इस पर प्रभी मथन होना शेष है। महावीर की रहस्यवादी परम्परा अपने मूलरूप मे लगभग प्रथम सदी तक बसती रही। उसमें कुछ विकास अवश्य हुप्रा. पर वह बहुत अधिक नहीं। यहां तक माते-पाते प्रात्मा के तीन स्वरूप हो गये । अन्तरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा । साधक बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के माध्यम से परमात्मपद को प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में प्रात्मा और परमात्मा में एकाकारता हो जाती है 1. विशेष देखिये-डॉ. भागचन्द जैन भास्कर का ग्रन्थ 'जैनिज्म इन बुद्धिस्ट लिटरेचर, तृतीय अध्याय-जैन इथिक्स
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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