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________________ 122 चढ़ाने और जटा धारण करने से कोई अर्थ नहीं, जब तक पर पदार्थो से पाशा न तोड़ी जाय । पाण्डे हेमराज ने भी इसी तरह कहा की शुद्धात्मा का अनुभव किये। बिना तीर्थ स्नान, शिर मुंडन, तप-तापन प्रादि सब कुछ व्यर्थ हैं-"शुद्धातम अनुभो बिना क्यों पावं सिवषेत" "जिनहर्ष ने ज्ञान के बिना मुण्डन तप आदि को मात्र कष्ट उठाना बताया है। उन क्रियानों से मोक्ष का कोई सम्बन्ध नहीं ---"कष्ट करे जसराज बहुत पे ग्यान बिना शिव पंथ न पावें ।" शिरोमणिदास ने "नहीं दिगम्बर नहीं स धार, ये जती नहीं भव भ्रमें अपार" कहकर और पं. दौलतराम ने "इंड मुंडाये कहां तत्त्व नहि पाच जो लौं लिखकर, भूधरदास ने "अन्तर उज्ज्वल करना रे भाई", कहकर इसी तथ्य को उद्घाटित किया है और शिथिलाचार की भर्त्सना की है। किशनसिंह ने बाह्यक्रियाओं को व्यर्थ बताकर अन्तरंग शुद्धि पर यह कहकर बल दिया जिन पापकू जीया नहीं, तन मन कूषोज्या नहीं। मन मैल कुंघोया नहीं, अंगुल किया तो क्या हुमा ।। लालच करै दिल दाम की, षासति करै बद काम की। हिरदै नहीं सुन राम की, हरि हरि कह्या तो क्या हुआ ॥ 1. जोगी हुवा कान फडाया झोरी मुद्रा गरी है। गोरख कहै असना नही मारी, परि धरि तुमची न्यारी है ।।2।। जती हुवा इन्द्री नहीं जीती, पंचभूत नहिं मार्या है । जीव अजीव के समझा नाहीं, भेष लेइ करि हास्या है ॥4॥ वेद पढ़े मरू बरामन कहावं, ब्रह्म दसा नहीं पाया है। प्रात्म तत्त्व का प्ररथ न समज्या, पोथी का जनम गुमाया है ।।5।। जंगल जावै भस्म चढ़ाये, जटा व धारी कैसा है। परभव की मासा नहीं मारी, फिर जैसा का तैसा है ॥6॥ रूपचन्द, स्फुटपद् 2-6, अपभ्रश और हिन्दी में जैन रहस्यबाद, पृ. 184, अभय जन ग्रन्यालय बीकानेर की हस्तलिखित प्रति । 2. उपदेश दोहा शतक, 5-18 दीवान बधीचन्द मंदिर जयपुर, गुटका नं. 17, बेष्टन नं 636। 3. जसराज बावनी, 56, अन गुर्जर कविमो, भाग 2, पृ. 116। 4. सिद्धान्त शिरोमणि, 57-58, हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 1681 5. हिन्दी पर संग्रह, पृ. 1451
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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