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________________ 'पायर की करि नाव पारन्वषि उतरवी कहे, काग उड़ावनि काज़ सूत्र चिन्तामरिण बाहे । बस छांह बादल तरणी रवं धूम के धूम, करि कृपाया संज्या रमे ते क्यों पार्श्व विसराम ॥12 95 विनयविजय संसारी प्राणियों की ममता प्रवृत्ति को देखकर भावुक हो उठते हैं और कह उठते हैं- 'मेरी मेरी करत बाउरे, फिरे जीव प्रकुलाय' ये पदार्थ जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर हैं। उनसे तूं क्यों ललचाता है ? माया के विकल्पों ने तेरी आत्मा के शुद्ध स्वभाव को प्राच्छादित कर लिया है । मृगतृष्णा और तृप्ति के कांटों से पड़े रहकर दुःख भोग रहा है। उसे ज्ञान- कुसुमों की शय्या को प्राप्त करने का सौभाग्य हुआ ही नहीं । स्वयं में रहने वाले सुधा-सरोवर को देखा नहीं जिसमें स्नान करने से सभी दुःख दूर हो जाते हैं ।" कविवर दौलतराम का हृदय संसार की विनश्वरता को देखकर करुणा हो जाता है और कह उठता है कि भरे विद्वन् । तुम इस 'संसार' मे रमण मत करो । यह संसार केले के तने के समान प्रसार है । फिर भी हम उसमें प्रासक्त हो जाते हैं। क्योकि मोह के इन्द्रजाल में हम जकड़े हुए हैं । फलतः चतुर्गतियों में जन्म-मरण के दु.ख भोग रहे हैं । इस दुःख को अधिक व्यक्त करने के लिए कवि ने पारिवारिक सम्बन्धों की अनित्यता का सुन्दर चित्रण किया है। उन्होंने कहा कि कभी जो अपनी पत्नी थी वह माता बन जाती है, माता पत्नी बन जाती है, पुत्र पिता बन जाता है, पुत्री सास बन जाती है। इतना ही नहीं, जीव स्वयं का पुत्र बन जाता है । इसके अतिरिक्त उसने नरक पर्याय के घोर दुःखों को सहा है जिसका कोई मन्त नहीं रहा । उसे सुख वहां है कहां ! रे विद्वन् ! सुर भोर मनुष्य की प्रचुर विषय लिप्सा से भी तुम परिचित हो तो बताओ, कौन-सा संसारी जीव सुखी है। संसार की क्षणभंगुरता को भी तुमने परखा है। वहां महान् ऐश्वर्यं प्रौर समृद्धि क्षण भर में नष्ट हो जाती है । इन्द्र जैसा ऐश्वर्यशाली तो जीव भी कुक्कुर हो जाता है, नृप कृषि बन जाता है, धन सम्पन्न भिखारी बन जाता है और तो क्या जो माता पुत्र के वियोग में मरकर व्याप्रिणी बनी, उसी ने अपने पुत्र के शरीर के खण्ड-खण्ड कर दिये । कवि उनसे फिर कहता है कि मवष्य को बाल्यावस्था में हिताहित का 2. 1. वही, पृ. 163, मंदिर ठोलियान, जयपुर का गुटका नं. 110, पृ. 120 पद्य 5 वां । जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 295.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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